Sunday 25 June 2017

आस्था व विश्वास को दें सार्थक दिशा

     पानी की एक एक बूंद निर्मल हो...नदी का प्रवाह अविरल हो... आचमन से लेकर स्नान तक जल की उपयोगिता सुनिश्चित हो, सभी चाहते तो यही हैं लेकिन यह सोच-चिंतन-मनन व विमर्श कहीं भी सार्थक होते नहीं दिखता।

    इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि एक पग आंदोलन का स्वरूप नहीं ले सकता आैर बूंद-बूंद से घट नहीं भर सकता। कोशिश होनी चाहिए... कोशिश भी सार्थक हो... आस्था एंव विश्वास को यदि सार्थक दिशा दे दें तो निश्चय ही नदियों के जल की शुद्धता लाना मुश्किल न होगा। गंगा हो या यमुना या कावेरी हो या फिर देश की कोई भी बड़ी नदी हो, फूल-पत्तियों व पूजन सामग्री से कुछ न कुछ प्रदूषण अवश्य बढ़ता है। इसे रोका जा सकता है। इसके लिए आस्था एवं विश्वास की पुरातन सोच को बदलना होगा। 
        अब गंगा नदी को ही लें तो नाला-नालियों की गंदगी के साथ ही बड़े पैमाने पर फूल-मालाओं के साथ ही पूजन सामग्री गंगा में प्रवाहित की जाती है। गोमुख से गंगासागर तक 2525 किलोमीटर लम्बी गंगधारा में प्रतिदिन हजारों टन फूल-मालाओं के साथ अन्य पूजन सामग्री विसर्जित की जाती है। गंगा की जलधारा में ऋषिकेश, हरिद्वार से लेकर कानपुर, इलाहाबाद व बनारस सहित बिहार व पश्चिम बंगाल के कई शहरों में गंगा में पूजन सामग्री विसर्जित की जाती है।
          आस्था एवं विश्वास के पूजन-अर्चन को यथावत रखते हुए देवालयों में चढ़े फूल मालाओं को सामाजिक उपयोग के लिए एक आयाम दिया जा सकता है। हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद व बनारस में हर दिन हजारों टन फूल मालायें व अन्य पूजन सामग्री देवालयों को अर्पित की जाती है। कानपुर में गंगा तट सरसैया घाट पर महादेव बाबा आनन्देश्वर का भव्य-दिव्य देवालय है। 
         इसी तरह से इलाहाबाद में गंगा किनारे देव स्थलों की एक लम्बी श्रंखला है। काशी बनारस में गौरी केदारेश्वर व बाबा विश्वनाथ व अन्य देव स्थान हैं। अब केवल बनारस में बाबा विश्वनाथ मंदिर, गौरी केदारेश्वर व अन्य देव स्थानों को ही लें तो हर दिन आैसत बीस टन फूूल मालायें चढ़ाई जाती हैं। इसी तरह से गंगा तट के निकट के अन्य देव स्थलों पर फूल मालायें चढ़ती हैं। 
        फूल मालाओं व अन्य पूजन सामग्री को गंगा नदी में विसर्जित करने के बजाय इसका सार्थक उपयोग किया जा सकता है क्योंकि गंगा नदी में विसर्जित पूजन अर्चन सामग्री को प्रवाहित करने से गंगा में कहीं न कहीं प्रदूूषण बढ़ता है। पूजन में अर्पित फूल मालाओं को संग्रहित कर ईकोफ्रैण्डली रंग बनाये जा सकते हैं। गुलाब से लाल व गुलाबी रंग बनाया जा सकता है तो गेंदा से पीला रंग बनाया जा सकता है। इसी तरह से शिवालय पर चढ़ाये जाने वाले बेलपत्ती से हरा रंग बनाया जा सकता है। 
           विशेषज्ञों की मानें तो फूल मालाओं से पच्चीस प्रतिशत रंग आसानी से बनाया जा सकता है। इससे होली व अन्य अवसरों पर रसायनिक रंगों से बचा जा सकता है। होली व अन्य त्योहार ईकोफ्रैण्डली रंगों से सराबोर दिखेंगे। इसके कोई रसायनिक दुष्प्रभाव नहीं होंगे। इतना ही नहीं फूल-मालाओं के कचरा से जैविक खाद बनायी जा सकती है। इसका खेती में अच्छा उपयोग किया जा सकता है।
           इसमें देवालयों के व्यवस्थापकों व स्थानीय निकायों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण होगी। स्थानीय निकायों की भूमिका होनी चाहिए कि देवालयों में पूजन-अर्चन में चढ़ाये गये फूल मालाओं को परिसर या परिसर के बाहर सम्मान सहित संग्रहित किया जाये। 
           संग्रहित करने के बाद उसे इकोफ्रैण्डली रंग बनाने या जैविक खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया जाये। यह एक सार्थक कोशिश देश के विभिन्न इलाकों के देवालयों-देवस्थलों पर अमल में आये तो आस्था व विश्वास के साथ सामाजिक उपयोगिता दिखेगी।

टियाटिहुआकन : पिरामिड श्रंखला का शहर     'रहस्य एवं रोमांच" की देश-दुनिया में कहीं कोई कमी नहीं। 'रहस्य" की अनसुलझी गु...