Monday 20 November 2017

चम्बल का संसद : इंकतेश्वर महादेव

     ऐसा नहीं कि शिल्प केवल बुलंद इमारतों एवं अट्टालिकाओं में ही दिखे। चम्बल को भले ही बीहड़ों की भयावहता एवं दुर्यान्त डकैतों की आश्रय स्थली के तौर पर देखा जाता हो लेकिन कलाशिल्प-वास्तुशिल्प में भी पीछे नहीं।

  मध्यकालीन शिल्पियों एवं वास्तुविद-वास्तु शिल्पकारों ने 'अंदाज-ए-बयां" कुछ ऐसा अंजाम दिया, जो देश-दुनिया का एक नायाब तोहफा बन गया। मध्यकालीन शिल्पकारों ने चम्बल की एक विशाल चट्टान को इच्छाशक्ति से विशिष्ट बना दिया। ब्रिाटिश आर्कीटेक्ट सर हरबर्ट बेकर भी स्थापत्य कला एवं संरचना को देख अभिभूत हो गए थे।
    जी हां, इस स्थान को खास तौर से 'चम्बल का संसद" की संज्ञा दी गयी है। 'चम्बल का संसद" कहा भी क्यूं न जाए ? क्योंकि भारतीय संसद का आकार-प्रकार-ढ़ांचा सभी कुछ इस भव्य-दिव्य देवालय पर आधारित है। मध्य प्रदेश के चम्बल मुरैना में मितावली पर स्थित है। इकोत्तरसो या इंकतेश्वर महादेव के नाम से ख्याति प्राप्त यह 'देवालय" भूमि तल से करीब तीन सौ फीट ऊंचाई पर स्थित है।
      विशेषज्ञों की मानें तो 'भारतीय संसद" ब्रिाटिश वास्तुविद सर एडविन ल्युटेन की मौलिक संरचना माना जाता है लेकिन यह भी कटु सत्य है कि इस देवालय की संरचना भी भारतीय संसद जैसी है। धार्मिक क्षेत्र में इस देवालय को चौसठ योगिनी शिव मंदिर की मान्यता है। ग्रेनाइट स्टोन (पत्थर) से बना यह देवालय लालित्य-सौन्दर्य एवं माधुर्य की विलक्षण संरचना है।
       भारतीय पुरातत्व विभाग की मानें तो इस देवालय का निर्माण 9 वीं शताब्दी में हुआ। गोलाकार संरचित इस देवालय के मध्य में मुख्य गर्भगृह स्थापित है। मुख्य शिवलिंग इसी गर्भगृह में स्थापित है। विशेषज्ञों की मानें तो सन् 1323 में महाराजा देवपाल ने शिवलिंग स्थापित कराया था। चौसठ योगिनी का यह भव्य-दिव्य देवालय वास्तुकला एवं एवं गौरवशाली परम्परा के लिए ख्याति रखता है।
      अफसोस, ख्याति होने के बावजूद मध्य प्रदेश या देश के पर्यटन क्षेत्र में यह स्थान कोई खास ख्याति नहीं बना सका। विशेषज्ञों की मानें तो तत्कालीन क्षत्रिय महाराजाओं ने इसका निर्माण कराया था। इस भव्य-दिव्य देवालय में गोलाकार चौसठ कक्ष संरचित हैं। प्रत्येक कक्ष में एक एक शिवलिंग प्राण प्रतिष्ठित है। इसके मुख्य परिसर में भव्य-दिव्य शिवमंदिर है। 
     शिव के साथ ही देवी योगिनियां भी प्राण प्रतिष्ठित हैं। खास बात यह है कि योगिनियों सहित शिव के इस मंदिर में केवल हिन्दू धर्मावलम्बी ही पूजन-अर्चन नहीं करते बल्कि अंग्रेज-विदेशी नागरिक भी श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होते हैं।
      विशेषज्ञों की मानें तो देश में चार चौसठ योगिनियों के मंदिर हैं। इनमें दो ओडिशा में आैर दो मध्य प्रदेश में हैं। यहां सनातन धर्म एवं तांत्रिक क्रियाओं का पूर्ण विश्वास है। खास यह है कि इस भव्य-दिव्य देवालय में एक सौ एक खम्भों की आकर्षक श्रखला विद्यमान है। प्राचीनकाल में तांत्रिक अनुष्ठान का यह अत्यंत विशाल एवं बड़ा केन्द्र था। इस भव्य-दिव्य देवालय तक पहंुचने के लिए करीब दो सौ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं।

Sunday 19 November 2017

हाइपेरियन : दुनिया का सबसे ऊंचा पेड़

     दुनिया-धरती में 'अजूबा" की कहीं कोई कमी नहीं। 'सौन्दर्य-लालित्य एवं माधुर्य" से लबरेज 'अजूबा" धरती में कहां नहीं ? वन एवं पर्यावरण श्रंखला में भी 'सौन्दर्य-लालित्य एवं माधुर्य" कम नहीं। 

   इस प्राकृतिक सम्पदा को सुरक्षित-संरक्षित रखना भौतिकतावादी युग में भले ही कुछ मुश्किल भले ही हो गया हो लेकिन प्राकृतिक सम्पदा श्रंखला का दुनिया धरती में अपार भण्डार है। इन प्राकृतिक सम्पदाओं में विलक्षणता भी विद्यमान है। 
      विशेषज्ञों की मानें तो न्यूयार्क का 'स्टैच्यू आफ लिबर्टी" अपनी शीर्षता के लिए दुनिया में ख्याति रखता है लेकिन दुनिया की वन एवं पर्यावरण सम्पदा श्रंखला 'स्टैच्यू आफ लिबर्टी" को चुनौती देती है। कैलिफोर्निया का 'हाइपेरियन" वृक्ष-पेड़ अपनी ऊंचाई के लिए ख्याति रखता है।
    विशेषज्ञों की मानें तो 'हाइपेरियन" वृक्ष धरती का सबसे अधिक ऊंचाई वाला पेड है। इसे कैलिफोनिया में रेडवुड अर्थात लाल लकड़ी की संज्ञा से नवाजा गया है। इन विलक्षण पेड़ों की आैसत आयु भी आश्चर्यचकित करने वाली है। यह विलक्षण पेड़ 1200 वर्ष से लेकर 1800 वर्ष तक आयु को आसानी से पूर्ण करते हैं। 'हाइपेरियन" वृक्ष की लम्बाई सामान्यत: एक सौ पन्द्रह मीटर से लेकर एक सौ बीस मीटर तक होती है। व्यास भी कम नहीं होता।
     'हाइपेरियन" का व्यास भी नौ से दस मीटर तक होता है। 'हाइपेरियन" पर्यावरण का अति दुलर्भ प्रजाति के वृक्ष श्रंखला में माना जाता है। विशेषज्ञों की मानें तो हाइपेरियन की खोज करीब एक दशक पहले 25 अगस्त 2006 को पर्यावरणविद एवं प्रकृतिवादी क्रिस अटकिंस एवं माइकल टेलर ने संयुक्त तौर से की थी।
    हालांकि इस विलक्षण वृक्ष की उपलब्धता 1978 में विशेषज्ञों की नजर में आयी थी लेकिन कहीं अधिक महत्व नहीं मिला। सामान्यत: इस लकड़ी का उपयोग परिवेश की सजावट में किया जाता था। करीब सात सौ वर्ष पुराने पेड़ में 18000 से 20000 घनफुट लकड़ी होने का आंकलन रहता है। उत्तरी कैलिफोर्निया में एक तट को सेक्वाइया सेम्परवान्र्स के नाम से जाना जाता है।
   इस क्षेत्र में हाइपेरियन की वृक्ष श्रंखला पायी गयी। पर्यटक हाइपेरियन की विलक्षणता को देखने आते हैं। कई बार तो पर्यटक पेड़ पर चढ़ने से भी नहीं चूकते। कैलिफोर्निया व आसपास के इलाकों में उपलब्ध इस वृक्ष श्रंखला के अधिसंख्य वृक्ष काटे जा चुके हैं।
     विशेषज्ञों की मानें तो 95 प्रतिशत से अधिक वृक्ष कट जाने से यह प्रजाति विलुप्त पर्यावरण श्रंखला में शामिल हो गयी। विशेषज्ञों की मानें तो दुनिया के शीर्ष वृक्ष श्रंखला में हाइपेरियन शीर्ष पर है। हाइपेरियन वृक्ष की लकड़ी सुन्दर, चमकदार, लाल रंग की होती है।
   आशियाना को सौन्दर्य शास्त्र के अनुरुप गढ़ना हो तो हाइपेरियन लकड़ी को श्रेष्ठ एवं उत्तम माना जाता है। लिहाजा हाइपेरियन वृक्ष श्रंखला के सामने अस्तित्व संकट खड़ा हो गया।
     हालांकि कैलिफोर्निया सहित देश-दुनिया के कई इलाकों में हाइपेरियन के वृक्ष पाये जाते हैं। खास तौर से मुख्य मार्गो एवं हाईवे पर यह वृक्ष श्रंखला शोभायमान होती है। इन वृक्षों के आसपास अन्य वृक्षों की तुलना में शीतलता भी कहीं अधिक पायी जाती है। व्यास अधिक होने व ऊंचाई भी अपेक्षाकृत अधिक होने पर वन क्षेत्र अर्थात जंगलों में कई बार आश्रय स्थल के तौर पर भी हाइपेरियन उपयोग होते हैं।

Friday 17 November 2017

कंबोडिया का टा प्रोहोम : नैराश्य में सौन्दर्य

     'नैराश्य में सौन्दर्य" जी हां, सामान्यत: खण्डर नैराश्य का प्रतीक होते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं कि खण्डर में सौन्दर्य न दिखे। बस सलीके से सजाने-संवारने की आवश्यकता होगी। 

    कंबोडिया का 'राजा विहार" मंदिर अपने शिल्प एवं वैशिष्ट्य के कारण विश्व विख्यात हो रहा। हालांकि 'राजा विहार" मंदिर खण्डर की भांति विद्यमान है लेकिन खण्डहर का सौन्दर्य भी दर्शकों-श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों को आकर्षित करता है। 
    कंबोडिया के इस विलक्षण मंदिर को 'टा प्रोहोम" के नाम से देश-दुनिया में खास तौर से जाना-पहचाना जाता है। कंबोडिया में 'टा प्रोहोम" का आशय 'पूर्वज ब्राह्मा" होता है। कंबोडिया के सिम रीप प्रांत के अंगकोर में स्थित है। 
   खण्डहर में सामान्यत: नैराश्य प्रतीत होता है लेकिन 'टा प्रोहोम" में ऐसा नहीं है क्योंकि यहां 'नैराश्य में सौन्दर्य एवं लालित्य" का बोध होता है। कंबोडिया का यह मंदिर 12 वीं एवं 13 वीं शताब्दी के मध्य बना। कंबोडिया की बैन शैली पर आधारित यह विलक्षण मंदिर देश-दुनिया में खास ख्याति रखता है। इसे 'राजविहार" भी कहा जाता है।
      विशेषज्ञों की मानें तो कभी मंदिर क्षेत्र शहर का हिस्सा हुआ करता था लेकिन अब वन क्षेत्र का विशिष्ट स्थान है। अब तो मंदिर का कोना-कोना जगंल परिवेश से आबद्ध दिखता है। इस भव्य-दिव्य मंदिर का निर्माण खमेर राजा जय वरामन ने कराया था। अंगकोर के इस विश्व प्रसिद्ध मंदिर को यूनेस्को ने 1992 में विश्व धरोहर में शामिल किया था।
       भारत एवं कंबोडिया के पर्यटन समझौता के तहत इस मंदिर के सौन्दर्य निखार एवं संरक्षण में भारतीय विशेषज्ञों की भी विशेष भूमिका रहती है। इस मंदिर में मुख्यत: बौद्ध दर्शन होते हैं। बौद्ध अनुयायियों के बीच इसकी मान्यता बौद्ध मठ के तौर पर भी है। इस मंदिर की दिव्यता एवं भव्यता का सहज अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहां 12500 से अधिक श्रद्धालुओं-दर्शकों एवं पर्यटकों के लिए अपेक्षित एवं पर्याप्त स्थान है।
     विशेषज्ञों की मानें या किवदंती मानें तो इस भव्य-दिव्य मंदिर के निर्माण में आत्माओं का भी सहयोग रहा। आसपास के गांव व अन्य करीब आठ लाख से अधिक आत्माओं का सेवाओं एवं आपूर्ति में सहयोग माना जाता है। मंदिर के लिए श्रम के साथ ही सोना, मोती, रेशम व धन की उपलब्धता भी सुनिश्चित करायी गयी थी। मंदिर में उपग्रह का अंकन है।
    खास तौर से बौद्ध धर्म को रेखांकित किया गया लेकिन राजा की मां, राजा के गुरु, जय मंगलला, बोधिसत्व, लोकेश्वर की करुणा आदि दृश्यांकित है। विशेषज्ञों की मानें तो 15 वीं शताब्दी में खमेर साम्राज्य के पतन के बाद 'टा प्रोहोम" मंदिर को छोड़ दिया गया। सदियों उपेक्षित रहने से मंदिर खण्डर में तब्दील हो गया। अन्तोगत्वा, 21 शताब्दी में अंगकोर के मंदिरों को सुरक्षित-संरक्षित एवं पुर्नस्थापना के सार्थक प्रयास शुरु हुये।
     'टा प्रोहोम" को सौन्दर्य प्रदान करने की इच्छाशक्ति इकोले फ्रांसीज डी एक्सट्रैम ओरियेंट में दिखी। शनै-शनै यह विलक्षण मंदिर उपेक्षा से उबरने लगा। उपेक्षा की अवधि में मंदिर का बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो चुका था। विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 2013 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने मंदिर का गौरव व स्वरूप वापस लाने की कोशिशें प्रारम्भ कीं।
     विशेषज्ञ अन्तोगत्वा, मंदिर के अधिसंख्य हिस्सों को वास्तविक दशा-दिशा में लाने में कामयाब रहे। पर्यटकों की सहूलियतों को ध्यान में रखते हुये लकड़ी के रास्ते, प्लेटफार्म व घुडसवारी के लिए रेलिंग आदि का निर्माण कराया गया।
      मंदिर का क्षेत्रफल करीब साढ़े छह लाख वर्गफुट से अधिक है। यहां एक सुन्दर अभ्यारण भी है। इसे विश्व के शीर्ष बौद्ध स्थलों में से एक माना जाता है।

Thursday 16 November 2017

कापूचिन कैटाकोम्ब : आश्चर्यजनक किन्तु सत्य

    'आश्चर्यजनक किन्तु सत्य" जी हां, कब्रिास्तान तो देखे सुने जाते हैं लेकिन शव संग्रहालय बहुत कम ही सुना जाना गया।

  इटली में दुनिया का सबसे अजूबा संग्रहालय है। हालांकि संग्रहालय संवेदनशील एवं कमजोर ह्मदय वाले व्यक्तियों को अवलोकन की इजाजत नहीं देता। इस आश्चर्यजनक संग्रहालय को देश-दुनिया में 'कापूचिन कैटाकोम्ब" के नाम से जाना-पहचाना जाता है।
   इसे अनोखा कब्रिास्तान कहा जाये या शव संग्रहालय की संज्ञा दी जाये। विशेषज्ञों की मानें तो सदियों पुराने इस शव संग्रहालय में करीब दस हजार शव संग्रहित हैं। यह एक ऐसा शव संग्रहालय है, जहां शव को ममी बना कर सुरक्षित रखा गया है। 
    इटली के शहर सिसली में स्थित इस शव संग्रहालय को देखने देश दुनिया के असंख्य पर्यटक आते हैं। 'कापूचिन कैटाकोम्ब" शायद दुनिया को विलक्षण एवं अनोखा शव संग्रहालय है। 'कैटाकोम्ब" का शाब्दिक अर्थ अण्डर ग्राउण्ड कब्रिास्तान होता है।
      विशेषज्ञ बताते हैं कि प्राचीन रोम में इस तरह के कब्रिास्तान बहुतायत में पाये जाते थे। लेकिन 'कापूचिन कैटाकोम्ब" काफी हद तक 'कैटाकोम्ब" से अलग है। यहां शव को दफनाने के स्थान पर ममी की भांति सजा-संवार कर सुरक्षित रखा जाता है। 
    यह कब्रिस्तान एक संग्रहालय की भांति है। 'कापूचिन कैटाकोम्ब" में शव को रखने के लिए अलग-अलग सेक्शन अर्थात वर्ग बने हुये हैं। मसलन पुरुष वर्ग, महिला वर्ग, बाल वर्ग,  कुंवारी कन्याओं का वर्ग, संत-महात्माओं का वर्ग, शिक्षक वर्ग, चिकित्सक वर्ग एवं सैनिक-रक्षा विशेषज्ञ वर्ग आदि-इत्यादि हैं। विशेषज्ञों की मानें तो इस शव संग्रहालय में प्रथम ममी वर्ष 1599 में बनायी गयी थी। 
    यह शव ब्रादर सिल्वेस्ट्रो का था। हालांकि वर्ष 1880 में इस कब्रिास्तान को अधिकृत तौर पर बंद कर दिया गया था। बताते हैं कि बंद होने के बायजूद अक्सर शव को लेकर लोग आते थे। अन्तोगत्वा, एक बार फिर संग्रहालय की हलचल होने लगी। वर्ष 1920 में एक बच्ची का शव आया। इसे ममी बना कर संरक्षित कर लिया गया।
    बच्ची के इस शव अर्थात ममी को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे बच्ची सो रही हो। गहरी निद्रा में हो। यह बच्ची रोसलिया लबाडरे थी। इस ममी को संग्रहालय में 'स्लीपिंग ब्यूटी" नाम दिया गया। यह रहस्य अभी भी कायम है कि बच्ची के शव को ममी बनाने में आखिर कौन सा रसायन उपयोग में लाया गया क्योंकि बच्ची की ममी अभी भी वैसी ही है। 
    विशेषज्ञों की मानें तो 'कापूचिन कैटाकोम्ब" की स्थापना केवल कैथालिक संत-महात्माओं के शव संरक्षित-सुरक्षित रखने के लिए किया गया था लेकिन धीरे-धीरे इस संग्रहालय में शव को ममी के तौर पर रखा जाना सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सामाजिक रुतबा माना जाने लगा।
    इस संग्रहालय में मृतक के परिजनों से बकायदा शुल्क वसूला जाता है। जिससे संग्रहालय के रखरखाव का खर्च चले। यदि किसी ममी का शुल्क आना बंद हो जाता है तो उस ममी को संग्रहालय से हटा दिया जाता है। 'कापूचिन कैटाकोम्ब" देश-दुनिया के पर्यटकों के लिए हमेशा खुला रहता है।
    हालात यह हैं कि यह शव संग्रहालय इटली का विशेष आकर्षण बन चुका है। यह शव संग्रहालय अंदर से जितना डरावना लगता है, उतना ही अधिक आकर्षण भी है। हालांकि संग्रहालय तक पहंुचना का रास्ता संकरी गलियों से हो कर गुजरता है। फिर भी शव संग्रहालय में ममियों को देखने बड़ी संख्या में देश विदेश के पर्यटक पहुंचते हैं।

Tuesday 14 November 2017

माउंट रुश्मोरे : विशिष्ट एवं शिल्प सौन्दर्य

     भले ही कलाकृतियां बहुत अधिक पुरानी-प्राचीन न हों लेकिन अपनी विशिष्टता से एक अलग पहचान बना ही लेती हैं।

    जी हां, युनाईटेड स्टेट्स का 'माउंट रुश्मोरे" भले ही अत्यधिक प्राचीन न हो लेकिन दुनिया का एक आकर्षण है। हालात यह हैं कि देश-दुनिया की कलाकृतियों का उल्लेख हो आैर अमेरिका के 'माउंट रुश्मोरे" का उल्लेख न हो तो कहीं न कहीं कुछ अधूरा सा लगता है। 
    माउंट रुश्मोरे कलाकृति अत्यधिक पुरानी तो नहीं लेकिन विशिष्टता पहचान बन गयी। माउंट रुश्मोरे का निर्माण करीब डेढ दशक में पूर्ण हो सका। 
   इसके निर्माण में सौ-पचास नहीं बल्कि चार सौ से अधिक कुशल कारीगरों ने इसे तराशा-सजाया-संवारा। माउंट रुश्मोरे का निर्माण 4 अक्टूबर 1927 में प्रारम्भ हुआ। इसके निर्माण में करीब डेढ दशक लगे। निर्माण के प्रथम चरण में डाइनामाइट से दर्जनों को चट्टानों का हटाया-तोड़ा या ध्वस्त किया गया।
   इसमें अमेरिका चार पूर्व राष्ट्रपतियों की छवियों को रुपांकित किया गया या उकेरा गया। इनमें जार्ज वाशिंगटन, थॉमस जेफरसन, थियोडोर रुजवेल्ट एवं अब्रााहम लिंकन की छवियां हैं। इस विशाल कलाकृति में पूर्व राष्ट्रपतियों के भव्य-दिव्य चेहरे दिखते हैं।
      साउथ डकोटा में कीस्टोन के समीप स्थित 'माउंट रुश्मोरे" नेशनल मेमोरियल गुलजोन बोरग्लम द्वारा निर्मित स्मारक है। यह एक ग्रेनाइट मूूर्तिकला है। इसे संयुक्त राज्य अमेरिका स्मारक भी कहा जाता है। स्मारक खास तौर से छवियों की उंचाई 18 मीटर से भी अधिक है। 
   'माउंट रुश्मोरे" मुख्यत: ग्रेनाइट चेहरों वाली एक अतिसुन्दर मूर्तिकला है। संयुक्त राज्य अमेरिका के कीस्टोन ब्लैक हिल्स में रुपांकन किया गया। गुटजोन बोरग्लम व उनके पुत्र लिंकन बोर्लुम के संयुक्त प्रयासों का एक शानदार परिणाम है। दक्षिण डकोटा के प्रसिद्ध इतिहासकार डोअनी रॉबिन्सन ने क्षेत्र को पर्यटन के तौर पर बढ़ावा देने के लिए ब्लैक हिल्स को अपने तौर-तरीके से रेखांकित किया। इसकी नक्काशी का श्रेय रॉबिन्सन को जाता है।
     रॉबिन्सन का मूर्तिकला में भी अच्छा दखल था। ग्रेनाइट की खराब गुणवत्ता के बावजूद विशेषज्ञों ने विशेष बना दिया। 'माउंट रुश्मोरे" को महान राजनीतिक संरक्षक स्थल के तौर पर भी अभिलेखों में दर्ज किया गया है। अमेरिका के सीनेटर पीटर नोरैक के कार्यकाल में इस प्रसिद्ध एवं विशालकाय मूर्तिशिल्प का खाका खींचा गया। स्मारक का निर्माण सामान्यत: 1927 में प्रारम्भ हुआ।
   छवियों के चेहरों का निर्माण 1934 से 1939 के बीच पूरा हो सका। निर्माणकर्ता गुटजोन बोरग्लम की मौत मार्च 1941 में होने के बाद उनके पुत्र लिंकन बोर्लुम ने निर्माण कार्य पूर्ण कराया। अन्तोगत्वा, 'माउंट रुश्मोरे" संयुक्त राज्य अमेरिका का एक शानदार प्रतीक बन गया।
    विशेषज्ञों की मानें तो देश-दुनिया के दो लाख से अधिक पर्यटक प्रति वर्ष 'माउंट रुश्मोरे" के शिल्प सौन्दर्य देखने आते हैं।

Thursday 9 November 2017

मान्यता-परम्परा : हवा में लटकते शव

   'परम्पराओं एवं मान्यताओं" का कहीं कोई अंत नहीं। जी हां, देश-दुनिया में अजीब-ओ-गरीब मान्यतायें एवं परम्परायें देखने-सुनने को मिलती हैं।

  अभी तक हैंगिंग टेम्पल, हैंगिंग फ्लाईओवर-ओवरब्रिाज, हैंगिंग रेस्ट्रां, हैंगिंग हाउस, हैंगिंग गार्डन आदि-अनादि सुुुना होगा लेकिन हैंगिंग कॉफिन नहीं सुना होगा लेकिन दुनिया में यह भी परम्परा है कि ताबुत (कॉफिन) को पहाड़ की चोटी पर लटकाया जाये।
    आम तौर पर शव का अंतिम संस्कार करने से लेकर जमीन या कब्रिस्तान में दफन करने की व्यवस्थायें-परम्परायें देखते सुनते आये हैं लेकिन शव को ताबुुत में रख कर हवा में लटकाना नहीं सुना होगा। 
     दुनिया के कई देशों में समुदायों के बीच परम्परा है कि शव को ताबुत में रख कर पहाड़ पर लटका दिया जाये। बताते हैं कि दुनिया में यह परम्परा करीब दो हजार वर्ष पुरानी है। मान्यता है कि पहाड़ों पर शव रखने से मृत व्यक्ति का अस्तित्व आसानी से प्रकृति की आबोहवा में मिल जाता है।
    हैंगिंग कॉफिन्स की परम्परा खास तौर से दुनिया के तीन देशों में देखने-सुनने को मिलती है। चीन, इण्डोनेशिया एवं फिलीपींस में यह परम्परा लम्बे समय से चली आ रही है। फिलीपींस के सगाधा में यह परम्परा सदियों से चली आ रही है।
     चीन में यांगटजी नदी के किनारे हैंगिंग काफिंस देखने को मिल जाते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो यह ताबुत मिंग राजवंश काल के हैं। किसी समय इस स्थान पर कॉफिन्स एक हजार से भी अधिक थे लेकिन अभी धीरे-धीरे यह संख्या काफी कम हो गयी है।
    हालांकि अब इन कॉफिन्स को संरक्षित कर दिया गया है। इस स्थान को अब पर्यटन स्थलों की भांति मान्यता दी गई है। चीन के ताबुत बेहद खतरनाक तौर-तरीके पर दिखते हैं। आश्चर्य होता है कि आखिर ताबुत को इन खतरनाक स्थल पर कैसे रखा गया ? फिलीपींस में तो कुछ अलग ही परम्परा है। 
  फिलीपींस के बुजुर्ग मृत्यु से पहले ताबुत को खुद तैयार करते-कराते हैं। परिजनों को अपनी भावनाओं से अवगत करा देते हैं कि उनकी इच्छा के मुताबिक शव को ताबुत में रख कर हवा में लटकायें। जिससे उनके शरीर का अस्तित्व प्रकृति की गोद में समविष्ट हो जायें।
    मृत्यु के पश्चात शव को उसमें रख कर पहाडी गुफा में रख दिया जाता है। इण्डोनेशिया के सुलावेसी में भी इस तरह की मान्यतायें एवं परम्परायें मिलती हैं। इसी तरह की मान्यतायें परम्परायें दुनिया के कई देशों में देखने-सुनने को मिलती हैं।

Wednesday 8 November 2017

ब्लू होल : मनोरंजकता में भी खतरा

  'सौन्दर्य शास्त्र" का कथ्यात्मक तथ्यात्मक आलोक निश्चय ही किसी को भी लुभाने में समर्थ कहा जाएगा। प्राकृतिक सौन्दर्य जहां एक ओर मन-मस्तिष्क को प्रफुल्लित करता है तो वहीं इसमें खतरे भी कम नहीं। लाल सागर मिरुा तट पर प्राकृतिक सौन्दर्य का नायाब स्थल है। 

 इस स्थल को ब्लू होल के नाम से दुनिया में जाना-पहचाना जाता है। गोताखोर समुदाय का यह एक अति पसंदीदा स्थल है लेकिन ब्लू होल गोताखोरों के लिए बेहद खतरनाक भी माना जाता है।
  देश दुनिया के तमाम पर्यटक इस स्थल पर गोतोखोरी देखने जाते हैं। इसे 'दुनिया के सबसे खतरनाक गोता स्थल" व 'गोताखोर के कब्रिास्तान" के तौर भी जाना जाता है। 
   करीब सौ मीटर गहराई वाले इस ब्लू होल में करीब तीस मीटर लम्बी सुरंग भी है। हालांकि इसका प्रवेश स्थल करीब छह मीटर चौडा़ई वाला है। सुरंग को कट्टर के रुप में जाना जाता है। 
    इस इलाके में मंूगा व चट्टानी मछली की उपलब्धता बहुतायत में है। मिरुा शासन ने इस स्थल पर खास तौर से गाइड्स व प्रशिक्षित कर्मचारी तैनात किए हैं जिससे किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना को रोका जा सके। हालांकि मनोरंजक ड्राइविंंग के लिए बड़ी तादाद में गोताखोर यहां आते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो अति गहराई में नाइट्रोजन रसायन का प्रभाव मिलता है।
      नाइट्रोजन का प्रभाव गोताखोरों के लिए बेहद खतरनाक होता है क्योंकि इससे गोताखोरों में शराब का नशा जैसा होने लगता है। नशा का प्रभाव शरीर में होते ही गोताखोरों का फिर बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में गोताखोर की मौत हो जाती है।
     ब्लू होल बेहद आकर्षक अर्थात मेहराब जैसा काफी कुछ प्रतीत होता है। ब्लू होल की गहराई में धीरे-धीरे गैसों के मिश्रित प्रभाव से गोताखोर को नींद आने लगती है। बस गोताखोरों की मौत के यही कारण होते हैं। हालांकि शासकीय गाइड्स निश्चित सीमा से अधिक आगे जाने के इजाजत नहीं देते हैं।
      फिर भी गोताखोर जोश व मनोरंजकता में निश्चित दायरे से कहीं आगे बढ़ जाते हैं। जिससे हादसे हो जाते है। मिरुा के शासकीय अफसरों की मानें तो अब तक सौ से अधिक गोताखोर मौत का शिकार हो चुके हैं। मौतों को देख कर मिरुा शासन ने एहतिहाती उपाय किए हैं।
    ऐसा नहीं कि इस क्षेत्र में जीवाश्म (जीव-जन्तु) भी बड़ी तादाद में पाए जाते हैं। मगरमच्छ व कछुओं की तादाद कहीं अधिक होती है। इस क्षेत्र में रसायनिक पदार्थों की उपलब्धता भी पर्याप्त मात्रा में है। खास बात यह है कि ब्लू होल का जल कहीं मीठा तो कहीं खारा है।

Friday 3 November 2017

विलक्षण रीड बांसुरी गुफा

    'प्राकृतिक उपहार श्रंखला" से देश दुनिया लबरेज है। यह प्राकृतिक श्रंखला दर्शकों एवं पर्यटकों को अपनी विलक्षणता से न केवल आकर्षित करती है बल्कि मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ देती है। जिससे दर्शक एवं पर्यटक लम्बे समय तक भूल नहीं पाते।

   चीन के गुइलिन में एक विलक्षण गुफा है। इस बहुरंगी गुफा का अवलोकन करने या देखने देश दुनिया के दर्शक या पर्यटक बड़ी संख्या आते-जाते रहते हैं। देश दुनिया के पर्यटकों के आकर्षण के इस केन्द्र को रीड बांसुरी गुफा (रीड फ्लूट केव) के नाम से जाना जाता है। 
  यह दिलचस्प गुफा बहुरंगी प्रकाश से हमेशा आलोकित रहती है। इसके लिए प्रकाश की कहीं कोई अतिरिक्त व्यवस्था नहीं है बल्कि शिला खण्ड अर्थात पत्थर श्रंखला की चमक से गुफा आलोकित रहती है। गुफा में अनवरत बहुरंगी-इन्द्रधनुषी प्रकाश की किरणें परिवेश में तैरती रहती हैं।
    इस गुफा में लाइमस्टोन (चूना पत्थर) की एक लम्बी श्रंखला है। खास बात यह है कि इन पत्थर श्रंखला से निकलने वाला प्रकाश विभिन्न रंगों वाला होता है। इतना ही नहीं गुफा में मधुरता व सुरीलापन का भी एहसास होता है कि जैसे गुफा में बांसुरी की मधुर तान-मधुर राग की अठखेलियां हो रही हों। करीब पांच सौ मीटर से अधिक लम्बी यह गुफा अपने अंदर अनेक आकर्षण छिपाये है।
     विशेषज्ञों की मानें तो यह विलक्षण गुफा एक हजार दो सौ वर्ष से भी अधिक पुरानी है। गुफा में शिला खण्ड की विलक्षण व अद्भूत आकृतियां भी अवलोकित होती हैं। यह कलाकृतियां कलात्मकता से परिपूरित हैं। इसमें रॉक संरचनाओं की विशिष्टता दिखती है। इनमें सत्तर से अधिक शिलालेख शामिल हैं। जिसमें चीन के तांग राजवंश का उल्लेख मिलता है। 
    विशेषज्ञों की मानें तो यह प्राचीन शिलालेख गुइलिन की विशिष्टताओं को भी दृश्यांकित करते हैं। यह विलक्षण एवं अदभूत गुफा करीब पौन सौ वर्ष पहले सन 1940 में प्रकाश में आयी। बताते हैं कि कभी जापानी सैनिकों के समूह ने इस स्थान पर शरण ली थी।
     इसके बाद धीरे-धीरे यह गुफा देश दुनिया में दर्शकों एवं पर्यटकों के बीच आकर्षण का केन्द्र बन गयी। चीन के शीर्ष पर्यटन स्थलों में रीड बांसुरी गुफा को जाना जाता है।

Thursday 2 November 2017

दुनिया का नायाब अमेरिका का गोल्डन गेट ब्रिज

     वास्तुकला की बात हो या नक्कासी या फिर विकास की फर्राटा दौड़ हो... दुनिया में नायाब आयाम गढ़ने में कोई देश किसी से पीछे नहीं। 

 नदियों व नहरों पर झूला पुलों की देश-दुनिया में एक लम्बी श्रंखला है लेकिन अमेरिका का गोल्डन गेट ब्रिज (सेतु) अपनी विलक्षणताओं के कारण दुनिया में अपनी एक अलग ही पहचान रखता है। 
    कुल करीब 2737 मीटर लम्बाई वाला यह झूला पुल अब अपनी आयु के करीब अस्सी वर्ष पूर्ण करने वाला है। इस झूला पुल का विधिवत उद्घाटन 27 मई 1937 को हुआ था। यह झूला पुल अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को को कई इलाकों व मुख्य महामार्गों से जोड़ता है। सैन फ्रांसिस्को खाड़ी के दोनों किनारों को जोड़ता है।
     विशेषज्ञों की मानें तो निर्माणकाल में इस झूला पुल को दुनिया का सबसे लम्बा झूला पुल माना गया था। यह अमेरिका के एक सौ एक महामार्गों को जोड़ता है। सिक्स लेन की चौड़ाई वाले इस पुल पर एक साथ सैकड़ों वाहन फर्राटा भरते हैं। करीब नब्बे फुट इस पुल की चौड़ाई है। 
     जबकि ऊंचाई 227 मीटर से भी अधिक है। इसके निर्माण में लाखों टन लौह का विभिन्न तौर तरीके से इस्तेमाल किया गया। डिजाइन भी अद्भूत है। सैन फ्रांसिस्को, कैलीफोर्निया व मैरीन काउंटी सहित कई क्षेत्रों के लिए यह विशेष विकास का आयाम है।
   सांझ ढ़लते ही गोल्डन गेट ब्रिाज व आसपास का इलाका रोशनी की चकाचौंध से जगमगा उठता है। सैन फ्रांसिस्को एवं कैलिफोर्निया के लिए यह एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न बन चुका है। सांझ होने के साथ ही खाड़ी का जल भी उछाल मारता है। 
   कई बार तो खाड़ी का जल-पानी उछाल मार कर पुल तक भी पहंुच जाता है लेकिन यह जल क्रीड़ा भी यात्रियों-राहगीरों व पर्यटकों को आंनदित करती है। हालांकि सामान्य जल स्तर से इस पुल की ऊंचाई अर्थात नीचे का हिस्सा करीब 67 मीटर ऊंचा है। 
   पुल के नीचे से जल यातायात भी निरन्तर चलता रहता है। झूला पुल पर चकाचौंध रोशनी की पर्याप्त व्यवस्था है। डिजाइन ऐसा है कि खाड़ी की जलक्रीड़ा का लाइटिंग सिस्टम पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात जनजीवन को कोई खतरा नहीं रहता।
  दुनिया के इस विशालतम झूला पुल की कल्पना-परिकल्पना सस्पेंशन, ट्रस आर्क एवं टअस काजवेज ने की थी।
  इस पुल के अनुरक्षण का कार्य गोल्डन गेट ब्रिाज हाईवे एण्ड ट्रांसपोर्ट के हवाले है। यह विकास का एक आयाम भर ही नहीं बल्कि एक पर्यटन स्थल भी है। देश-दुनिया से बड़ी संख्या में पर्यटक इस पुल का सौन्दर्य निहारने आते हैं।

टियाटिहुआकन : पिरामिड श्रंखला का शहर     'रहस्य एवं रोमांच" की देश-दुनिया में कहीं कोई कमी नहीं। 'रहस्य" की अनसुलझी गु...