Friday 29 September 2017

दुनिया का खतरनाक ज्वालामुखी माउंट मेरापी

   प्राकृतिक सौन्दर्य मन मस्तिष्क को प्रफुल्लित करता है तो वहीं देश-दुनिया में खतरे भी कम नहीं। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां प्राकृतिक सौन्दर्य से लबरेज स्थल न हों।

    प्रकृति ने जहां सौन्दर्य, लालित्य व माधुर्य के उपहार दिये वहीं खतरनाक स्थलों की लम्बी श्रंखलाएं भी दीं। जिससे देश-दुनिया को सावधान एवं सतर्क भी रहना चाहिए। जी हां, इण्डोनेशिया के योग्याकार्ता सीमा पर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खतरनाक ज्वालामुखी में से एक है। माउंट मेरापी वोल्केनो के नाम से ख्यात यह एक सक्रिय ज्वालामुखी है।
     विशेषज्ञों की मानें तो माउंट मेरापी वोल्केनो सैकड़ोें दशक से अनवरत विस्फोटक दशा में सक्रिय एवं क्रियाशील रहता है। हालांकि विस्फोट की रफ्तार कभी कम कभी अधिक होती रहती है। यह ज्वालामुखी 1548 से लगातार सक्रिय दिखता है। विस्फोट की तीव्रता कम होने पर इससे तेज धुंआ निकलता है।
     विशेषज्ञों की मानें तो ज्वालामुखी से निकलने वाला यह धुंआ भी आसमान पर करीब दो मील की ऊंचाई तक दिखता है। इसके आसपास दो लाख से आबादी निवास करती है। इण्डोनेशिया के लिए यह ज्वालामुखी एक बड़ी चिंता का कारण है क्योंकि कभी भीषण विस्फोट हो गया तो एक बड़ा हादसा भी हो सकता है। 
    प्राकृतिक उपहारों में सम्पदाओं की भी कहीं कोई कमी नहीं रहती। शोधकर्ताओं की मानें तो इस विस्फोटक ज्वालामुखी में विभिन्न गैसों का प्रचुर भण्डारण है। जिसका देश दुनिया के लिए बेहतर उपयोग किया जा सकता है। दुनिया के विशेषज्ञों का दल गैसों की उपलब्धता से लेकर उपयोगिता तक का अध्ययन कर रहे हैं जिससे देश दुनिया के लिए उपलब्ध गैस भण्डार का उपयोग सुनिश्चित किया जा सके। 
      इण्डोनेशिया का यह ज्वालामुखी योग्याकार्ता से करीब 28 से 30 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में है। विस्फोट के समय आसमान आग के गोलों से भर जाता है। वायु मण्डल आग उगलने लगता है। ऐसा नहीं है कि इन खतरों से आबादी अनजान व निर्भय है। 
    इण्डोनेशिया सरकार इस इलाके के बाशिंदों को कई बार चेता चुकी है कि इस इलाके में जीवन सुरक्षित नहीं है। लिहाजा इलाका छोड़ दें। सैकडों लोग ज्वालामुखी की विभिषिका का शिकार हो चुके हैं।

Thursday 28 September 2017

विलक्षण रीड बांसुरी गुफा

    'प्राकृतिक उपहार श्रंखला" से देश दुनिया लबरेज है। यह प्राकृतिक श्रंखला दर्शकों एवं पर्यटकों को अपनी विलक्षणता से न केवल आकर्षित करती है बल्कि मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ देती है। जिससे दर्शक एवं पर्यटक लम्बे समय तक भूल नहीं पाते। 

   चीन के गुइलिन में एक विलक्षण गुफा है। इस बहुरंगी गुफा का अवलोकन करने या देखने देश दुनिया के दर्शक या पर्यटक बड़ी संख्या आते-जाते रहते हैं। देश दुनिया के पर्यटकों के आकर्षण के इस केन्द्र को रीड बांसुरी गुफा (रीड फ्लूट केव) के नाम से जाना जाता है। यह दिलचस्प गुफा बहुरंगी प्रकाश से हमेशा आलोकित रहती है। इसके लिए प्रकाश की कहीं कोई अतिरिक्त व्यवस्था नहीं है बल्कि शिला खण्ड अर्थात पत्थर श्रंखला की चमक से गुफा आलोकित रहती है।
       गुफा में अनवरत बहुरंगी-इन्द्रधनुषी प्रकाश की किरणें परिवेश में तैरती रहती हैं। इस गुफा में लाइमस्टोन (चूना पत्थर) की एक लम्बी श्रंखला है। खास बात यह है कि इन पत्थर श्रंखला से निकलने वाला प्रकाश विभिन्न रंगों वाला होता है। इतना ही नहीं गुफा में मधुरता व सुरीलापन का भी एहसास होता है कि जैसे गुफा में बांसुरी की मधुर तान-मधुर राग की अठखेलियां हो रही हों। 
      करीब पांच सौ मीटर से अधिक लम्बी यह गुफा अपने अंदर अनेक आकर्षण छिपाये है। विशेषज्ञों की मानें तो यह विलक्षण गुफा एक हजार दो सौ वर्ष से भी अधिक पुरानी है। गुफा में शिला खण्ड की विलक्षण व अद्भूत आकृतियां भी अवलोकित होती हैं। यह कलाकृतियां कलात्मकता से परिपूरित हैं। इसमें रॉक संरचनाओं की विशिष्टता दिखती है। 
     इनमें सत्तर से अधिक शिलालेख शामिल हैं। जिसमें चीन के तांग राजवंश का उल्लेख मिलता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह प्राचीन शिलालेख गुइलिन की विशिष्टताओं को भी दृश्यांकित करते हैं। यह विलक्षण एवं अदभूत गुफा करीब पौन सौ वर्ष पहले सन 1940 में प्रकाश में आयी।
      बताते हैं कि कभी जापानी सैनिकों के समूह ने इस स्थान पर शरण ली थी। इसके बाद धीरे-धीरे यह गुफा देश दुनिया में दर्शकों एवं पर्यटकों के बीच आकर्षण का केन्द्र बन गयी। चीन के शीर्ष पर्यटन स्थलों में रीड बांसुरी गुफा को जाना जाता है।

Wednesday 27 September 2017

अब घर की दीवार को सुगंधित पौधों से सजाएं

     पर्यावरण से लबरेज परिवेश किसे नहीं भाता। पेड़-पौधों की भीनी-भीनी सुगंध मन-मस्तिष्क को प्रफुल्लित कर देती है। चाहे सर्दी हो या गर्मी, मौसम का प्रभाव घर-आशियाना में अवश्य पड़ता है। ऐसे में घर-आंगन, ड्राइंग रुम, लॉबी खासतौर से शयनकक्ष से लेकर मेहमानखाने तक सुगंधित पौधों की श्रंखला हो तो क्या कहने ?


     जीवन का भरपूर आनन्द इस परिवेश में दिखेगा। पौधों से परिवेश में घुलती-मिलती सुगंधित आबो-हवा मन-मस्तिष्क को प्रफुल्लित कर देती है। हालांकि शयनकक्ष से लेकर मेहमानखाने तक सुगंधित पौधों को लगाना-सजाना काफी मुश्किल काम होगा। कभी करीने से गमलों को सजाना-लगाना तो कभी पौधों के अनुरूप स्थल को विकसित करना, काफी दुश्वारियों भरा लगता है। 
      हालांकि शोध-अनुसंधान ने इन मुश्किलों-दुश्वारियों को काफी पीछे छोड़ दिया। इजराइल के वैज्ञानिक-इंजीनियर्स, शोधकर्ताओं व विशेषज्ञों ने इस दिवास्वप्न को सच कर दिखाया। वर्टिकल गार्डेन में फूल उगाएं या सब्जियां पैदा करें या फिर खाद्यान्न की फसल लहलहायें। इजराइल की कम्पनी 'ग्रीनवाल" ने खास तकनीकि से विकसित वर्टिकल गार्डेन की रुपरेखा को आकार दिया है।
      विशेषज्ञों की मानें तो बहुमंजिला इमारतों के बाशिंदे दीवारों पर खाद्यान्न की पसंदीदा फसल उगा सकते हैं। ग्रीनवाल कम्पनी के वैज्ञानिकों ने एक अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का विकास किया है। इसमें इमारत के अंदर व बाहर की दीवार पर बहुआयामी गार्डेन को आयाम देने का सिस्टम बनाया। इसमें पारम्परिक बाग-बगीचा-गार्डेन की तुलना में बहुत ही कम स्थान घेरने की आवश्यकता पड़ती है।
      सिस्टम ऐसा है कि ऊंचे गार्डेन की परिकल्पना को भी साकार किया जा सकता है। इजराइल में इसे मूर्तरुप दिया गया है। इजराइल की अधिसंख्य इमारतों में हाईराइज गार्डेनिंग दिखती है। ग्रीनवाल ने वर्टिकल गार्डेनिंग-प्लांटिंग सिस्टम बनाने के साथ-साथ पौधों व खेती के लिए अनुकूल मिट्टी भी उपलब्ध कराती है। इस सिस्टम में स्मॉल मॉड्युलर युनिट का उपयोग किया जाता है। यह युनिट वैज्ञानिकों-विशेषज्ञों ने खास तौर से विकसित किए हैं। 
     यह स्मॉल माड्युलर युनिट दीवार पर इस प्रकार लगाए जाते हैं जिससे पौधे बाहर न गिरें। इन युनिट से गार्डेन की डिजाइन में बदलाव भी किया जा सकता है। रिफ्रेश करने के लिए युनिट को बाहर निकाला या बदला जा सकता है। सिस्टम कुछ ऐसा ही बनाया गया है। पौधों को पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए कम्प्युटराईजेशन की सहायता ली गयी है। मॉनीटरिंग, सेंसर व कंट्रोल सिस्टम को इजराइल के वाटर मैनेजमेंट कम्पनी गैलकॉन की सहायता से विकसित किया गया है। 
      पर्यावरण संवर्धन की दिशा में इटली भी पीछे नहीं रहा। इटली के मिलान शहर में पर्यावरण का नायाब नमूना देखने को मिल रहा। पर्यावरण का यह नया व नायाब तरीका न केवल बेहतरीन है बल्कि टिकाऊ भी है। मिलान की इस बिल्डिंग को पर्यावरण संवर्धन व संरक्षण को ध्यान में रख कर डिजाइन किया गया। मिलान की खास तौर से दो इमारतों में नौ सौ से अधिक पेड़ व चौदह हजार से अधिक पौधे लगाए गए। 
       इन सभी पेड़-पौधों को बिल्डिंग में बेहतरीन तरीके व सलीके से उपयोग किया गया। मिलान में इन बिल्डिंगों को 'बॉस्को वर्टिकल" के नाम से जाना जाता है।
      पर्यावरण अच्छादित व खूबसूरती के लिए मिलान की इन दो बिल्डिंगों को सीटीबीयूएच एवार्ड भी हासिल हो चुका है। इन इमारतों के बाशिंदों को पर्यावरण के भरपूर फायदे मिलते हैं। पेड़ गर्मियों में धूप व तपिश को अंदर नहीं जाने देते तो वहीं सर्दियों में तेज हवाओं को रोकते हैं। पेड़ धूल के महीन कण श्रंखला को बाहर ही रोक लेते हैं तो वहीं अन्य गंदगी भी अन्दर नहीं जाने पाती।
       साथ ही बाशिंदों का उमस से भी बचाव होता है। दुनिया में बढ़ते प्रदूषण के बीच प्रयोगधर्मिता की इन दोनों इमारतों को दुनिया की खूबसूरत इमारतों में माना जा रहा है। यह इमारतें पर्यावरण प्रेमियों के बीच आकर्षण का केन्द्र बनी हुई हैं तो वहीं बाशिंदों को एक खुशनुमा परिवेश उपलब्ध करा रही हैं।

Tuesday 26 September 2017

वैटिकन सिटी : दुनिया का छोटा पर खूबसूरत देश

      आबादी करीब नौ सौ व क्षेत्रफल करीब 44 हेक्टेयर। जी हां, दुनिया के सबसे खूबसूरत देश व राज्यों में गिना जाने वाला 'वैटिकन सिटी" खासतौर से 'सीमित" होने के बावजूद 'अत्यधिक" विस्तृत है।

     'वैटिकन सिटी" को दुनिया में एक स्वतंत्र देश-राज्य की मान्यता है। इसका अपना कानून, अपना सैन्य बल, अपनी राजभाषा, अपनी मुद्रा सहित बहुत कुछ अपना है। देश के बाशिंदों को खुद पासपोर्ट भी जारी करता है। हालांकि इस देश को अस्तित्व में आये अभी सौ वर्ष पूर्ण नहीं हो सके। फिर भी इस विलक्षण देश को दुनिया में जाना जाता है।
     'वैटिकन सिटी" यूरोपीय महाद्वीप का एक विशिष्ट देश है। विशेषज्ञों की मानें तो वैटिकन सिटी धरती के सबसे छोटे देशों में से एक है। चिट्टा डेल वैटिकानो से इस शहर के जन्म को माना जाता है। इसका क्षेत्रफल करीब चवालिस हेक्टेयर है जबकि आबादी करीब नौ सौ आकंलित है। 'वैटिकन सिटी" इटली के रोम शहर के अंदर स्थित है। इसकी राजभाषा लैटिन है।
      ईसाई धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय रोमन कैथोलिक चर्च का यहीं केन्द्र है। 'वैटिकन सिटी" के मध्य में सैन पियेत्रे भव्य-दिव्य हाल है। इसी हाल से धर्मगुरु पोप का उपदेश प्रसारित होता है। 'वैटिकन सिटी" में लैटिन के अलावा फ्रैंच व इटैलियन भाषा इस्तेमाल की जाती है। इस सम्प्रदाय के सर्वोच्च धर्मगुुरु पोप इसी देश में निवास करते हैं। यूं कहा जाये कि 'वैटिकन सिटी" रोम का छोटा सा हिस्सा है तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी।
      वैटिकन सिटी में सेंट पीटर गिरिजाघर, वैटिकन प्रासाद समूह, वैटिकन बाग सहित कई अन्य गिरिजाघर हैं। विशेषज्ञों की मानें तो 11 फरवरी 1929 को एक संधि के तहत इसे एक स्वतंत्र देश-राज्य के रुप में स्वीकार किया गया। इस देश के विश्व के सभी छोटे-बड़े देशों से राजनयिक संबंध हैं। वर्ष 1932 में रेलवे स्टेशन का निर्माण किया गया।
     'वैटिकन सिटी" वास्तुकला का अप्रतिम व अनुकरणीय देश है। वास्तुु का कलात्मक आयाम बरबस आकर्षित करता है। आकर्षक गिरिजाघरों, मकबरों, कलात्मक प्रासादों के साथ साथ संग्रहालयों व पुस्तकालयों की एक लम्बी श्रंखला है। खास बात यह है कि पोप के सरकारी निवास का नाम भी 'वैटिकन" ही है। रोम में वैटिकन पहाड़ी व टाइबर नदी के किनारे बसे 'वैटिकन सिटी" की बसावट अर्थात संरचना शिवलिंग पर आधारित दिखती है। यहां की सांस्कृतिक, धार्मिक व ऐतिहासिक परम्परायें विशिष्ट हैं।
     इस शहर की सजावट विश्व के नामचीन कलाकारों ने बड़े ही सलीके से की है। विशेषज्ञों की मानें तो एक समय था, जब रोम के निकटवर्ती प्रदेशों में चर्च शासन स्वीकार किया जाने लगा। वर्ष 1870 में इटली में पेपल स्टेट्स को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया गया। इससे इटली एवं चर्च के बीच तनावपूर्ण हालात पैदा हो गये। कारण रोमन कथोलिक चर्च अपने परामाध्यक्ष को ईसा का प्रतिनिधि समझ कर किसी राज्य के अधीन नहीं रहना चाहता। 
     सहमति-समझौता के आधार पर वर्ष 1929 में इटली व रोमन कैथोलिक चर्च की दिशायें तय हो गयीं। इसी के तहत संत पीटर के धर्म क्षेत्र के आसपास लगभग एक सौ नौ एकड़ भूमि उपलब्ध करा दी गयी। इस क्षेत्र को पूर्ण तौर पर स्वतंत्र मान लिया गया। इसी के साथ ही 'चिट्टा डेल वाटिकानो" अर्थात 'वैटिकन सिटी" का विश्व के एक नये देश के तौर पर उद्भव हुआ।
      वैटिकन सिटी को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता हासिल है। वैटिकन सिटी अपने देश के बाशिंदों को पासपोर्ट जारी करने से लेकर सभी आवश्यक सेवायें-सुविधायें उपलब्ध कराता है। वैटिकन सिटी की आबादी भले ही नौ सौ के आसपास हो लेकिन यह देश दुनिया भर में फैले रोमन कैथोलिक चर्च का आध्यात्मिक संचालन करता है। 'वैटिकन सिटी" के पास अपनी डाक व्यवस्थायें हैं तो वहीं उसकी अपनी मुद्रा है। 
      खास बात यह है कि वैटिकन सिटी की मुद्रा इटली में भी चलती है। इन्फारमेशन एण्ड टेक्नालाजी, डाक विभाग, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य से लेकर वैटिकन सिटी का अपना सैन्य बल भी है। ईसाई धर्म के इस पवित्र शहर की संरचना हिन्दू धर्म के शिवलिंग के समान है। इस शहर का अवलोकन करने पर शिव के मस्तक का त्रिपुण्ड भी अवलोकित होता है।
      वैटिकन की उत्पत्ति भी वैदिक से मानी जा रही है। 'वैटिकन सिटी" छोटा राष्ट्र होने के बावजूद विकसित व सम्पन्न देशों में गिना जाता है। इस देश की इमारतें निश्चय ही वास्तुकला का अद्भूत उदाहरण हैं जिनको देखने का लोभ संवरण नहीं हो पाता। नक्काशी का शिल्प बरबस देखते ही बनता है।

Monday 25 September 2017

गिएथूर्न गांव : सड़कें नहीं, नहरों का संजाल

       'ईको फ्रैण्डली" गांव निश्चय ही लुभावने होंगे, इसमें कहीं कोई शक-संदेह नहीं। परिकल्पना होती है कि आदर्श गांव हो तो चमचमाती सड़कें हो... मूलभूत सेवाओं-सुविधाओं की श्रंखला बेहतरीन हो... कोलाहल से दूर सुरम्य वातावरण हो... प्राकृतिक सौन्दर्य की आभा से परिवेश आलोकित हो रहा हो।

    जी हां, इन सभी खूबियों से लबरेज नीदरलैण्ड का एक गांव 'गिएथूर्न" देश-दुनिया के पर्र्यटकों के लिए खास बन गया। स्वप्न लोक के इस गांव में खास यह है कि गांव में सड़कों का संजाल नहीं है। सपनों के इस गांव में खूबसूरती के साथ ही सादगी भी खास है। शायद इसी लिए इसे 'दक्षिण का वेनिस" एवं 'नीदरलैण्ड का वेनिस" भी कहा जाता है। 
     हॉलैण्ड-नीदरलैण्ड का यह विशिष्ट पर्यटन स्थल बन चुका है। नीदरलैण्ड के 'गिएथूर्न गांव" में देश विदेश के पर्यटकों की आवाजाही हमेशा बनी रहती है। इस गांव में सड़कों का संजाल तो नहीं अलबत्ता नहरों का गजब का संजाल है। करीब साढ़े सात किलोमीटर दायरे में फैला नहरों का यह नेटवर्क ही आवाजाही अथवा यातायात का सुगम मार्ग है। 
       आदर्श गांव हो आैर कोई चमचमाती कार या बाइक न हो, ऐसा हो नहीं सकता लेकिन ताज्जुब है कि इस गांव में न तो कोई कार है आैर न ही कोई बाइक ही है। इसका एक बड़ा कारण भी है कि इस ईको फ्रैण्डली गांव में वाहनों को चलाने लायक सड़क भी तो नहीं हैं। गांव में कहीं किसी को जाना हो तो सुगम साधन बोट (नाव) है।
        इन नहरों में इलेक्ट्रिक मोटर बोट भी चलती है। इन नावों से कोई शोर-शराबा नहीं होता। गांव के बाशिंदों को कहीं कोई शिकायत भी नहीं रहती। आसपड़ोस में आने जाने के लिए बाशिंदों ने नहरों के उपर लकड़ी के पुुल बना रखे हैं। जिससे बाशिंदों को आसपड़ोस में आने-जाने में सहूलियत रहती है।
       नीदरलैण्ड व दुुनिया के इस विलक्षण गांव का उद्भव वर्ष 1230 में बताया जाता है। विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 1170 की विकराल बाढ़ से यह इलाका अत्यधिक प्रभावित रहा। इस इलाके में आबादी की चहलकदमी पर बाशिंदों को बकरियों के असंख्य सींग मिले थे। शायद इसी लिए इस स्थान का नाम पहले गेटेनहोर्न पड़ा। गेटेनहोर्न का शाब्दिक अर्थ 'बकरियों के सींग" होता है। 
     यही गेटेनहोर्न अपभ्रंश होकर अब गिएथूर्न बन गया। इस गांव में नहरों का संजाल न तो किसी शासकीय योजना के तहत बना न किसी योजनाबद्ध तौर तरीके से नहरों को खोदा गया। विशेषज्ञों की मानें तो 1170 की प्रलयंकारी बाढ़ में भारी तादाद में दलदली मिट्टी व बहुमूूल्यवान वनस्पतियां बह कर आ गयीं। दलदली मिट्टी वनस्पतियों को यह मिलाजुुला स्वरुप र्इंधन के तौर पर उपयोगी माना गया।
      शायद इसी लिए बाशिंदों ने खोदाई की। खोदाई होते-होते कब इस गांव में नहरों का संजाल बन गया, बाशिंदों को पता ही नहीं चला। शायद किसी को अनुमान नहीं होगा कि खोदाई अचानक ऐसा स्वरुप ले लेगा, जिसे दुनिया के एक बेहतरीन पर्यटन स्थल के तौर जाना जायेगा। इस गांव में करीब साढ़े सात किलो मीटर लम्बी नहरों का संजाल है। बताते हैं कि करीब छह दशक पहले यह गांव अचानक विश्व पर्यटन मानचित्र पर छा गया।
       वर्ष 1958 के आसपास डच कामेडी फिल्म फेनफेयर की शूटिंग गिएथूर्न गांव में की गयी। इसके बाद यह गावं दुनिया में खास तौर से ईको फ्रैण्डली विलेज के तौर पर जाना जाने लगा। इस फिल्म को बनाने वाले बर्ट हांस्त्रा थे। 'नो कार नो पाल्यूशन" की छवि के साथ ही इस गांव का कोना-कोना प्राकृतिक सौन्दर्य से लबरेज है। वातावरण में एक खुशबू के साथ मंद-मंद पवन भी मन-मस्तिष्क को झंकृत कर देती है। 
     नहरों के उपर लकड़ी के शानदार पुल हैं तो गांव में शानदार म्युजियम भी हैं। इस गांव में नये नवेले आशियाने दिखेंगे तो वहीं दो वर्ष पुराने घर-घरौंदे भी शानदार आवरण में नजर आयेंगे। इस गांव में सैर सपाटा करने के लिए एमस्टडर्म एयरपोर्ट से भी जा सकते हैं तो रोटेर्डम एयरपोर्ट से भी यात्रा का लुफ्त उठा सकते हैं। 
      एमस्टडर्म एयरपोर्ट से गिएथूर्न गांव की दूूरी करीब 95 किलोमीटर है तो वहीं रोटेर्डम एयरपोर्ट से करीब एक सौ दस किलोमीटर की दूरी है। इस गांव तक पहंुचने के लिए बस व रेल मार्ग से भी जाया जा सकता है।

Sunday 24 September 2017

ब्लड फॉल्स लेक : हवा से पानी का रंग लाल

    दुनिया में अजब-गजब करिश्मों की कहीं कोई कमी नहीं। कहीं पेड़-पौधे विचित्र आकार-प्रकार में दिखते हैं तो कहीं जल-पानी अपना रुप-रंग बदलता दिखता है तो कहीं इमारतों की विचित्रता आकर्षित करती है। विक्टोरिया की धरती उत्तरी-पूर्वी अंटार्कटिका में एक विलक्षण लेक अर्थात झील है।

    इस झील का पानी हवा व आक्सीजन के सम्पर्क में आते ही अपना रंग बदल देता है। अंटार्कटिका सहित दुनिया में इस झील को ब्लड फॉल्स लेक अर्थात रक्त झरना के नाम से जाना-पहचाना जाता है। लौह तत्व से परिपूरित इस झील का जल पूरी तरह से खारा है। ब्लड फॉल्स लेक निर्जन स्थान पर लाल रंग के जल प्रपात के तौर पर दिखती है।
       वस्तुत: यह ग्लेशियर पर स्थित है। दो ग्लेशियर के बीच में स्थित इस झील का जल हवा-आक्सीजन के सम्पर्क में आते ही लाल हो जाता है। इसमें जंग के तत्व साफ दिखते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो बीस लाख सालों से यह विलक्षण जल परिवर्तन अनवरत चला आ रहा है। लौह तत्वों की अत्यधिक मात्रा होने के कारण इसके जल में परिवर्तन लाती रहती हैं। इस पूरे इलाके में बर्फ के छोटे-बड़े झरने व छोटे-बड़े दरारों में दिखते हैं। 
      यह जलप्रपात आस्ट्रेलियाई भूवैज्ञानिकों की दृष्टि में पहली बार आया। विशेषज्ञों की मानें तो बर्फ की सतह पर बड़ी तादाद में घुलनशील फेरिक आक्साइड की उपलब्धता होने के कारण विलक्षणतायें दिखती हैं। खारा पानी में लौह तत्वों की उपलब्धता जल को विशिष्ट बनाती है। 
       विशेषज्ञों की मानें तो ब्लड फॉल्स के पानी का परीक्षण किया गया तो डेढ़ दर्जन से अधिक प्रकार पाये गये। इस जल में रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता भी पायी गयी। इसमें कार्बनिक पदार्थों के साथ साथ सल्फेट भी पाया जाता है। वैज्ञानिक एवं इंजीनियर्स के शोध में केमिकल एवं माइक्रोबियल तत्व भी प्रचुरता में पाये गये। चमकदार लाल रंग का यह झरना मैक्मुडों की सूखी घाटी क्षेत्र में है।
         इस स्थान को धरती के सबसे शीतलता-ठंड़ा एवं सबसे दुर्गम स्थानों में माना जाता है। सूक्ष्म जीवों की करीब डेढ़ दर्जन प्रजातियां इस जल में पायी जाती हैं। बताते हैं कि झील के जल का एक बड़ा हिस्सा अभी भी भूगर्भ में है। भूवैज्ञानिकों की मानें तो इस तरह के नमकीन पानी के सैकड़ों क्षेत्र भूगर्भ में उपलब्ध होने का अनुमान है। 
       जल की विशिष्टिताओं का लेकर भूजल वैज्ञानिकों में उत्साह भी है तो आश्चर्य भी है।विशेषज्ञों की मानें तो अंटार्कटिका के इस स्थान से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। ब्लड फॉल्स केवल एक विसंगति भर नहीं है बल्कि दुनिया के लिए यह स्थान शोध स्थल है। भूगर्भ जल में नमकीन जल प्रणाली तो वहीं सूखी घाटियां आश्चर्य पैदा करती हैं।

Friday 22 September 2017

विलक्षण पेड़ : चायदानी बाओबाब

     देश-दुनिया अजब-गजब करिश्मों से लबरेज है। बात चाहे पर्यावरण की हो या झील-सरोवर या फिर पर्वत श्रंखला की हो.... करिश्मों की कहीं कोई कमी नहीं। 

   पर्यावरण संवर्धन के साथ साथ पेड़-पौधों में विलक्षणता भी दिखती है। वट वृक्ष सहित अनेक पेड़ों की आैसत आयु की भी कोई सीमा नहीं। मेडागास्कर का एक शानदार पेड़ अपनी खास खूबियों के कारण देश-दुनिया खास चर्चित हो गया। इस शानदार पेड़ की प्रजाति दुनिया में केवल मेडागास्कर में ही पायी जाती है। विशेषज्ञों की मानें तो विलक्षण पेड़ की यह प्रजाति एक हजार वर्ष से भी पुरानी है। 
      मेडागास्कर में इस विशेष पेड़ को 'चायदानी बाओबाब" के नाम से जाना पहचाना जाता है। खास बात यह है कि यह विशालकाय पेड़ अस्सी मीटर या इससे भी कहीं अधिक लम्बे होते हैं। इसका आकार नीचे अर्थात पेड़ू से पच्चीस मीटर तक चौड़ा होता है। हालांकि सामान्यत: चौड़ाई दस मीटर होती है लेकिन यह सब पेड़ के आकार प्रकार पर निर्भर करता है। 
     सामान्यत: पेड़-पौधों को पुष्पित-पल्लवित करने के लिए पेड़ों को पानी देना होता है लेकिन 'चायदानी बाओबाब" की खूबियां कुछ अलग हैं। इसका जड़ समूह स्वयं पानी का उत्सर्जन करता है। सूखा के मौसम में यह पानी देता है। सूखे के मौसम में इस पेड़ के आसपास कहीं भी सूखा नहीं दिखेगा क्योंकि इसका जल रुाोत भूमि को अपेक्षित नमी प्रदान करता है।
     'चायदानी बाओबाब" छाया भी देता है तो फूल भी देता है लेकिन इसके फूलों का जीवन केवल चौबीस घंटे ही रहता है। फूल चाहे तोड़ लिये जायें या फूल पेड़ में ही लगे रहें। इस अवधि के बाद फूल मुरझा जाते हैं। इन फूलों को मेडागास्कर के सौ फ्रैंक नोट में स्थान दिया गया है। पर्यावरण विशेषज्ञों की नजर में दुनिया में पेड़ों के समूह के सबसे करिश्माई समूह में से एक है। इसमें वर्ष के अधिकतर समय पत्तियों का आच्छादन रहता है। इसका तना मोटा व फूला हुआ होता है।
      लिहाजा यह इंसानी आवश्यकताओं के लिए उपयोगी भी साबित होता है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कई बार इलाकाई बाशिंदे इसको अपना आशियाना भी बना लेते है। इसके शीर्ष भाग पर ही पत्तियों का आच्छादन होता है। इसका रंग हल्का ब्राउन एवं सुुनहरा होता है। 
    इसका विशिष्ट रंग भी दर्शकों को खास लुभाता है। इस पेड़ में खुरदरापन कम ही होता है। पेड़ का अधिकतर हिस्सा चमकदार व चिकना होता है। खास बात यह है कि लकड़ी होने के बावजूद ज्वलनशील नहीं है। इसमें आग प्रतिरोधी क्षमता होती है। 
       लिहाजा इसमें आग नहीं लगती है। हालांकि मेडागास्कर में अब इस प्रजाति को पर्यावरण की लुप्त प्रजाति में माना जाता है फिर मेडागास्कर में चायदानी बाओबाब पेड़ों की लम्बी श्रंखला खड़ी हैं। खास खूबियों के कारण चायदानी बाआबाब को मेडागास्कर में सर्वाधिक पसंदीदा पेड़ माना जाता है।

Thursday 21 September 2017

खूबियों वाली शैम्पेन पुल झील

    सौन्दर्य की इबारत लिखने में विश्व की जलधारायें भी पीछे नहीं। जी हां, जल अर्थात पानी का रंग हमेशा श्वेत-सफेद ही पाया गया लेकिन प्राकृतिक धरोहरों की श्रंखलाओं ने इस सच को भी अक्सर झुठलाया। 

     न्यूजीलैण्ड की 'शैम्पेन पुल झील" भी कुदरती करिश्मों से लबालब है। इस झील की एक धारा के जल का रंग हमेशा रंगीन नारंगी रहता है तो वहीं इसकी जलधारा में हमेशा शैम्पेन की तरह बुलबुला उठता रहता है। शायद इसीलिए इसे 'शैम्पेन पुल झील" के नाम से जाना जाता है। 
    न्यूजीलैण्ड में रोटोरुआ से दक्षिण करीब तीस किलोमीटर फासले पर स्थित यह कुदरती झील विश्व के लिए एक अजूबा है। तोपो से उत्तर दिशा में करीब पचास किलोमीटर की दूरी पर यह विलक्षण झील दिखेगी। नारंगी जलधारा वाली यह कुदरती झील करीब नौ वर्ष पहले अस्तित्व में दिखी। 
   करीब बासठ फुट गहरी व करीब पैंसठ फुट लम्बी इस विलक्षण झील को देखने देश दुनिया के असंख्य पर्यटक आते है। इस झील का जल दायरा करीब 18 लाख घनफुट है। इसकी सतह का जल तापमान करीब 74 डिग्री सेल्सियस रहता है जबकि झील का सामान्य जल करीब 260 डिग्री सेल्सियस तक पहंुच जाता है। झील के पानी में हमेशा बुलबुला उठता रहता है।
     उत्तरी द्वीप की इस झील-झरना में रासायनिक गैसों का भारी भण्डारण उपलब्ध है। इसमें हाइड्रोजन, हाइड्रोजन सल्फाइड, मीथेन, आर्सेनिक, सल्फाइड आदि गैसों का प्रचुुर भण्डारण है। इतना ही 'शैम्पेन पुल झील" के आसपास के पहाड़ों में बेशकीमती धातुओं की उपलब्धता भी पर्याप्त तादाद में है। इन पहाड़ी इलाकों में पारा, थैलियम के अलावा सोना व चांदी की भी उपलब्धता है। 
     इस विलक्षण झील का जल किसी तरल पदार्थ की भांति दिखता है तो झील में जल का प्रवाह उबलता हुआ दिखता है। ऐसा एहसास होता है कि अभी जलधारा से विस्फोट हो जायेगा। इस झील का जल गिलास में भर लेने से शैम्पेन की भांति झाग के साथ फैलता दिखता है। न्यूजीलैण्ड के भू वैज्ञानिक इसकी विलक्षणता का अध्ययन कर रहे हैं।

Wednesday 20 September 2017

केलिमुत्तू की विलक्षण क्रेटर लेक्स

        'सौन्दर्य" से लबरेज निराली छटा देश-दुनिया के अजब-गजब नजारों में खूब दिखेगी। सौन्दर्य शास्त्र को रेखांकित करने वाले प्राकृतिक नजारों की देश-दुनिया में कहीं कोई कमी नहीं। 

      खास तौर से यह नजारे अजब-गजब भी... सौन्दर्य से लबरेज भी... आैर प्राकृतिक उपहार भी...। ज्वालामुखी विस्फोटक होने के साथ ही अब पर्यटन स्थल की शक्ल भी लेने लगे। इण्डोनेशिया के केलिमुत्तू ज्वालामुखी में भी दुनिया को कुछ ऐसा ही दिख रहा। केलिमुत्तू ज्वालामुखी क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पदा ने विध्वंसक परिवेश को भी पयर्टन के सुन्दरता से भर दिया।
     केलिमुत्तू ज्वालामुखी के शिखर पर तीन विलक्षण झीलें हैं। विलक्षणता यह है कि इन झीलों का जल रंग हमेशा परिवर्तित होता रहता है अर्थात बदलता रहता है। यह विलक्षण झील अपने जल का रंग कभी लाल नीला तो कभी हरा व काला कर देती हैं तो चाकलेट-ब्रााउन रंग कर देती हैं। 
   खास बात यह है कि एक ही स्थान पर होने के बावजूद इन झीलों के जल का तापमान एवं रासायनिक गुण विभिन्नता से परिपूर्ण हैं। इण्डोनेशिया की इन झीलों को 'केलिमुत्तू क्रेटर लेक्स" के नाम से जाना जाता है। इण्डोनेशिया के फ्लोरेंस द्वीप के निकट यह झीलें हैं। 
       यह क्षेत्र इण्डोनेशिया की राजधानी से पूर्व के प्रांत नुसा तेगास में स्थित है। इस ज्वालामुखी के तीन शिखर हैं। इन शिखर पर ही झील स्थित हैं। इनमें एक झील को टीयू बुपुु कहा जाता है। इसे पुराने लोगों की झील के तौर पर देखा जाता है। अन्य दो झीलों को टीयू को नुवा तथा टीवू के नाम से जाना जाता है। इनको युवा पुरूषों व मेडन की झील कहा जाता है। यह मुग्ध करने वाली झीलें दुनिया के आकर्षण का केन्द्र हैं।
       इण्डोनेशिया की यह विलक्षण झीलें ज्वालामुखी पर करीब 1640 मीटर ऊंचाई अर्थात शिखर पर हैं। अध्ययन में पाया गया कि इनके रासायनिक तत्व अलग-अलग हैं। सुन्दर झीलों का इण्डोनेशिया में यह अतिलोकप्रिय पर्यटन स्थल है। 
     इण्डोनेशिया के भूवैज्ञानिकों ने ज्वालामुखी सहित सम्पूर्ण क्षेत्र का अध्ययन किया तो जल रंग परिवर्तन सहित तमाम विलक्षणतायें मिलीं। इण्डोनेशिया ने केलिमुत्तू को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया है। यह क्षेत्र खनिज व रासायनिक सम्पदाओं से परिपूर्ण है।
      विशेषज्ञों की मानें तो झीलों के जल रंग परिवर्तन के साथ ही विभिन्न प्रकार की गैसों की उपलब्धता भी है। राष्ट्रीय उद्यान घोषित होने के बाद इस क्षेत्र में पर्यटकों को आवागमन की सहूलियत हो गयीं। विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 1915 में इन विलक्षण झीलों की खोज हुयी। 
   एक क्षेत्रीय डच सैन्य अफसर बी वैन सचटेेलेन ने पहली बार देखा था। विलक्षणता ने सैन्य अफसर का ध्यान आकर्षित किया। वर्ष 1929 में वाई बॉयमन ने इसका उल्लेख किया। पर्यटकों के लिए निकट ही नियमित हवाई सेवायें उपलब्ध हैं। केलिमुत्तू ज्वालामुखी क्षेत्र में आवासीय सहूलियतें भी हैं जिससे पर्यटक आसानी से क्षेत्र में विश्राम कर सकते हैं। 
        शहरी क्षेत्र से केलिमुत्तू तक पहंचने में लगभग तेरह किलोमीटर की यात्रा करनी होती है। आम तौर पर पर्यटक 'सूर्योदय का सौन्दर्य" देखने के लिए लालायित रहते हैं क्योंकि सूर्योदय का सौन्दर्य भी विलक्षण ही होता है। लिहाजा अधिसंख्य पर्यटक क्षेत्र में रात्रि प्रवास करते हैं।

Tuesday 19 September 2017

गुलाबी जल वाली हिलैयर झील

   देश-दुनिया-जहाँ की धरती प्राकृतिक सौन्दर्य... प्राकृतिक खजाना... प्राकृतिक उपहारों की श्रंखला से लबरेज दिख रही। प्राकृतिक धरोहरों व उपहारों की श्रंखला निश्चय ही मन मोह लेती है। इन अप्रतिम सौन्दर्य उपहारों के दिग्दर्शन के लिए देश-दुनिया के सौन्दर्य प्रेमी व पर्यटक खिचे चले आते हैं।

       पश्चिमी आस्ट्रेलिया की 'गुलाबी झील" (पिंक लेक) भी प्राकृतिक खजाना का दुनिया को एक अद्भूत उपहार है। गुलाबी रंग के पानी वाली 'हिलैयर झील" का जल भले ही खारा हो लेकिन उसका सौन्दर्य मन को लुभाता है। दक्षिणी महासागर से ताल्लुक रखने वाली 'हिलैयर झील" की लम्बाई व चौड़ाई बहुत अधिक नहीं है फिर भी अपनी विशिष्टता के कारण देश-दुनिया में उसकी ख्याति है।
      करीब ढ़ाई सौ मीटर चौड़ी व लगभग छह सौ मीटर लम्बी इस विलक्षण झील में पानी की खासियत की एक लम्बी श्रंखला है। इस झील के चारो ओर रेत का फैलाव है। झील चौतरफा लकड़ी के जंगलों से घिरी है। इस जंगल में पेपरबर्क व नीलगिरी के पेड़ों की लम्बी श्रंखला है। इसमें वनस्पतियों के पेड़-पौधे हैं तो वहीं रेत के टीले बहुतायत में दिखेंगे। 
      झील की सबसे बड़ी खासियत-विशेषता उसके पानी का रंग गुलाबी होना है। झील का यह जल किसी खास समय पर गुलाबी नहीं होता बल्कि इसका जल हमेशा गुलाबी रहता है। झील का यह जीवंत गुलाबी रंग स्थायी है। वर्षा या अन्य ऋतुओं का इस झील के गुलाबी पानी पर कोई असर या फर्क नहीं पड़ता। इस विलक्षण झील को खोजने वाले मैथ्यू पिलंडर्स थे। 
      वर्ष 1802 में एक अभियान के दौरान उनकी नजर गुलाबी जल वाली इस विलक्षण झील पर पड़ी। शायद इसी लिए इस झील को 'पिलंडर्स पीक" भी कहा जाता है। अभिलेखों में 'गुलाबी रंग की छोटी झील" का उल्लेख मिलता है। विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 1803 में पिलंडर्स ने एक बार फिर मध्य द्वीप का दौरा किया। इस बार पिलंडर्स अपने साथ इस गुलाबी झील का पानी पीपों में भर कर ले आये।
        इसके बाद इस विलक्षण झील के पानी के व्यावसायिक उपयोग पर शोध-खोज प्रारम्भ हुयी। व्यावसायिक संभावनाओं की जांच-पड़ताल में सामने आया कि इस पानी का उपयोग नमक बनाने के लिए भी किया जा सकता है। इस पानी में हलोपलिक नमक व क्रुस्ट्स वैक्टेरिया भी पाये जाते हैं।
       विशेषज्ञों की मानें तो 19 वीं सदी में यह क्षेत्र नमक खनन क्षेत्र में था। पश्चिमी आस्ट्रेलिया के प्रशासन ने वर्ष 2012 में द्वीपसमूह नेचर रिजर्व संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया। इस तटीय रेखा को अब मनोरंजक क्षेत्र घोषित करने की दिशा में प्रयास चल रहे हैं। 
      ऐसा नहीं है कि खारा तत्व व खारा पानी होने के कारण जलीय जीव का कोई संकट होगा। गुलाबी जल में जलीय जीवन भी पर्याप्त तादाद में हैं। इस गुलाबी जल से मनुष्य को कोई खतरा नहीं दिखता। इस झील में गुलाबी बबल गम भी देखे जा सकते हैं तो तटीय रेखा पर नमक की परत आसानी से देखी जा सकती है।

Monday 18 September 2017

खौलते जल वाली डोमिनिका की ब्वॉइलिंग लेक

      'खौलता जल" किसी नदी-झील या जलाशय में अठखेलियां कर रहा हो तो निश्चय ही आश्चर्य होगा। जलधारा तो सामान्यत: 'शीतलता" का संदेश देती है लेकिन विश्व वसुंधरा तो अपने आगोेश में रहस्य-अचरज व आश्चर्य के खजानों की लम्बी श्रंखला छिपाये है। विश्व विरासत का डोमिनिका भी एक विलक्षण एवं अद्भूत स्थल है। 

    डोमनिका के राष्ट्रीय उद्यान में उबलते-खौलते जल की भव्य-दिव्य झील है। खास बात यह है कि मौसम के बदलते तेवर का इस झील के जल पर कोई फर्क नहीं पड़ता। 
   डोमिनिका के मोरेन ट्रोइस पिट्नस राष्ट्रीय उद्यान में स्थित इस 'ब्वॉइलिंग लेक" को देखने आैर इसकी आब-ओ-हवा को देखने-अनुभव करने बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं। यह खौलते जल वाली झील एक बड़े दायरे में है। 
      इस झील के उपर आम तौर पर भाप के बादल छाये रहते हैं। झील का जल कभी शांत नहीं दिखता-रहता। झील का भूरा व नीला जल सदैव-हमेशा बुदबुदाता दिखता है। ऐसा प्रतीत होता है कि झील का जल खौल रहा हो। विशेषज्ञों की मानें तो इस विलक्षण झील को वर्ष 1870 में देखा गया। इस झील के निकट दो अंग्रेज वॉट एवं डाक्टर निकोल्स काम कर रहे थे, तभी उन्होंने इस झील की विलक्षणता को देखा।
        इसके बाद वर्ष 1875 में वनस्पति शास्त्री एच प्रेस्टोई व डा. निकोल्स ने इस प्राकृतिक घटना पर शोध व अध्ययन प्रारम्भ किया। जल के तापमान को मापा गया तो पाया गया कि इस खौलती झील का जल 197 डिग्री फारेनहाईट तक पाया गया। जल के निरन्तर खौलने के कारण झील के केन्द्र बिन्दु के जल का मापन संभव नहीं हो सका। इस झील की गहराई मे काफी उतार-चढ़ाव हैं।
     विशेषज्ञों की दृष्टि में 1870 के दशक में विलक्षण जल वाली यह झील काफी गहरी थी लेकिन वर्ष 1880 में अचानक एक बड़ा विस्फोट हुआ आैर झील लुप्त हो गयी। इस झील के स्थान पर गर्म जल व भाप का फव्वारा निकलने लगा। इसके लम्बे समय बाद यह स्थान एक बार फिर खौलते जल वाली भव्य-दिव्य झील में तब्दील गया। 
    इस बार झील की गहराई कम हो गयी। अब तो हमेशा झील के जल में एक सतत प्रवाह दिखता है। इस झील से विभिन्न प्रकार की गैस का उत्सर्जन होता है तो वहीं भाप के बादल करीब-करीब हमेशा ही दिखते हैं। इस झील का झरनों से भी जुड़ाव है लेकिन जल कहीं भी खौलता ही मिलेगा। खौलने की पृवत्ति वाली इस जलझील में तैरना मौत को दावत देना है। 
    इस झील तक पहंचने के लिए कोई सीधी सड़क नहीं है बल्कि सड़क से करीब 13 किलोमीटर घूम फिर कर उबड़-खाबड़ रास्तों से होकर जाना होता है। फिर भी बड़ी संख्या में पर्यटक झील की विलक्षणता को देखने-महसूस करने आते हैं। पर्यटकों को नाश्ता व पानी खुद साथ लेकर आना-जाना होता है। इस विरानी घाटी में खतरनाक वृक्षवंश आदि की एक बड़ी व लम्बी चौड़ी श्रंखला है।
     डोमिनिका की इस झील व आसपास के इलाके के वायु मण्डल में सल्फर की पर्याप्त उपलब्धता है। सल्फर की गंध से इसे महसूस किया जा सकता है। उबलते जल वाली इस झील के प्रारम्भ से अंत तक करीब मोर्न निकोल्स की 3168 फुट लम्बी यात्रा करनी पड़ती है।
     विशेषज्ञ मानते हैं कि इस खौलते जल वाली झील के बेसिन अर्थात तल में पिघला लावा जैसा ज्वलनशील तत्व है। यह लावा गैसों का भी उत्सर्जन करता है। झील का भूरा व नीला जल खाना पकाने के लिए आसानी से उपयोग में लाया जा सकता है।
     इसे वीरानी की घाटी भी कहा जाता है। यह ब्वाइलिंग लेक ज्वालामुखी क्षेत्र में आती है। विशेषज्ञों की मानें तो साहसिक फिल्म निर्माता जॉर्ज कॉरआैनीस रस्सियों के सहारे इस झील को पार करने वाले पहले-प्रथम व्यक्ति बने। खौलते जल वाली यह ब्वाइलिंग लेक वैमांगु घाटी पर स्थित है।

Sunday 17 September 2017

इन्द्रधनुषी रंगों के जल वाली कॉनो क्रिस्टिल्स नदी

      सौन्दर्य-लालित्य-माधुर्य, रहस्य-रोमांच का कहीं कोई अंत नहीं। जी हां, प्रकृति ने हमेशा दुनिया-धरती को अद्भुत उपहारों से लबरेज रखा। सौन्दर्य व लालित्य मन-मस्तिष्क के तारों को झंकृत कर देता है।

      सौन्दर्य व लालित्य का आकर्षण ही होता है, जो मीलों से पर्यटक एक झलक पाने के लिए भागते-दौड़ते चले आते हैं। 'पानी रे पानी" तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा.... यह कथ्य-तथ्य व गुनगुनाना नैसर्गिक सौन्दर्य के सामने सटीक नहीं बैठता। 
     वैश्विक मानचित्र-पटल पर देखें तो पानी भी अपने वैशिष्ट्य से देश-दुनिया को आकर्षित करता है। जी हां, कोलम्बिया की नदी 'कॉनो क्रिस्टल्स" अपनी विशिष्टता के कारण देश-दुनिया में आकर्षण का केन्द्र बनी हुयी है। इस नदी का सामान्य पानी जुलाई से नवम्बर की अवधि में इन्द्रधनुषी रंग धारण कर लेता है। कोलम्बिया की इस नदी को दुनिया की सबसे सुन्दर नदी माना जाता है। 
     कोलम्बिया के प्रांत मेटा में यह विशिष्ट नदी स्थित है। सेरानिया डे ला मॉकरेना के रुाोत वाली यह एक सहायक नदी है। मूलत: कॉनो क्रिस्टल्स गुयाबेरो नदी की सहायक नदी है। इस नदी व चट्टानों को दुनिया की सबसे पुरानी प्राकृतिक सम्पत्तियों में माना जाता है। यहां के पठार व चट्टानों की श्रंखला करीब 1.2 अरब साल पुराने माने जाते हैं।
     करीब सौ किलोमीटर लम्बी इस बहुआयामी कॉनो क्रिस्टिल्स नदी को आम तौर पर कोलम्बिया में पांच रंगों की नदी एवं इन्द्रधनुष रंगों वाली नदी भी कहा जाता है। इस नदी में झरनों की एक लम्बी श्रंखला है। इस नदी का जल एक विशेष अवधि-विशेष समय पर हरा, पीला, नीला, लाल व काला हो जाता है। खास तौर इस नदी का जल लाल हो जाता है।
       विशेषज्ञों की मानें तो इस नदी का जल जुलाई से नवम्बर की अवधि में खास तौर से रंगीन होता रहता है। जल का रंगीन होने के एक बड़ा कारण विभिन्न प्रजातियों के पौधों को माना जाता है। इस नदी में मैकरेनिया क्लाविगेरा प्रजाति के पौधे बड़ी तादाद में हैं। इस पौधे की रसायनिक प्रक्रिया के कारण ही जल का रंग बदलता रहता है। 
     इस नदी की तलहटी खास तौर से कंकड़ व पथरीली चट्टानों वाली है लिहाजा जल की निर्मलता भी अद्वितीय है। इस नदी का जल भले ही रंगीन हो लेकिन निर्मलता विशेष रहती है। कोलम्बिया का यह क्षेत्र वर्षा वन क्षेत्र के रुप में जाना-पहचाना जाता है। इसका जल गर्म व शीतल होता है। यह परिवर्तन समय-समय पर होता रहता है। यह नदी शीतल जलचरों के लिए बेहद अनुकूल मानी जाती है। 
      इसमें पक्षियों की करीब चार सौ बीस प्रजातियां पायी जाती है। इतना ही नहीं उभयचरों की भी दस व सरीसृपों की 43 प्रजातियां संरक्षित हैं। 'कॉनो क्रिस्टिल्स नदी" में जलीय पौधों की लम्बी श्रंखला पुष्पित-पल्लवित होती है लेकिन इस खूबसूरत नदी में मछलियां नहीं पायी जातीं। 
     इन्द्रधनुषी रंगों वाली कॉनो क्रिस्टिल्स नदी दुनिया के लिए कौतुहल का विषय बनी है। पानी का रंग बदलने के कारण देश-दुनिया के पर्यटकों के लिए कॉनो क्रिस्टिल्स नदी आकर्षण का केन्द्र बनी है।

Friday 15 September 2017

वूकी होल गुफाएं : इन्द्रधनुषी छटाओं का आनन्द

    'धरती पर स्वप्नलोक" की कल्पना करें तो निश्चय ही देश-दुनिया की प्राकृतिक धरोहर अर्थात गिरि-कंदरायें-गुफाएं साकार दिखेंगी। गिरि-कंदराओं एवं गुफाओं को भले ही आदम जमाने का शिल्प मानें लेकिन सौन्दर्य बोध में कहीं किसी से कम नहीं। 

     'वूकी होल गुफाएं" अपने खास सौन्दर्य केलिए दुनिया में ख्याति रखती हैं। इंग्लैण्ड स्थित 'वूकी होल गुफाएं" सामान्यता देश-दुनिया की अन्य गुफाओं की भांति है लेकिन 'वूकी होल गुफाओं" में इन्द्रधनुषी छटाएं खिलती-निखरती हैं। यह इन्द्रधनुषी छटाएं दर्शकों-पर्यटकों को लुभातीं हैं। 'वूकी होल गुफाओं" में पत्थरों की चमक लुभाती है तो वहीं जलधारा-जलतरंग-जलप्रवाह भी सौन्दर्य में चार चांद लगाता है। 
    सौन्दर्ययुक्त इस गुफा में कैल्शियम एवं कार्बोनेट के चमकदार क्रिसट्ल्स प्रचुर तादाद में पाये जाते हैं। चूूना पत्थर वाली चट्टान श्रंखला में असंख्य रसायनिक तत्व उपलब्ध हैं। विशेषज्ञों की मानें तो चट्टानों में दस प्रतिशत से अधिक चूना आधारित तत्व हैं। घुलनशीलता होने के बावजूद एसिड की पर्याप्त उपस्थिति चट्टानों को कहीं से भी कमजोर नहीं होने देती। यह चूना पत्थर हजारों-लाखों वर्ष तक यथावत रखता है। टूथपेस्ट या पेंट जैसे पदार्थों का एहसास भी यहां होता है।
    वूकी होल गुफाओं में नदी का शानदार अवतरण होता है तो वहीं झरना का अद्भूत विहंगम दृश्य मन को भाता है। वैज्ञानिकों की मानें तो वूकी होल गुफा एक चूहात्मक गुफा है। अम्लीय भूजल कार्बोनेट चट्टानों को धुल देता है। इन गुफाओं में आैषधीय तत्व भी पर्याप्त तादाद में पाए जाते हैं। जिससे दर्शकों एवं पर्यटकों को ताजगी का एहसास होने के साथ साथ स्वास्थ्यवर्धक परिवेश मिलता है।
      गुफा के अंदर प्रवाहित होने वाली नदी को भी वूकी नदी के नाम से जाना जाता है। गुफा में अवतरण होने के बाद वूकी नदी अन्तोगत्वा सागर में विलीन हो जाती है। वूकी होल गुफाएं हिमयुग से भी वाकिफ कराती हैं। 'वूकी होल गुफाओं" की खोज वास्तव में 1874 के आसपास हुयी।
      पुरातत्व जांच में विलियम बॉयड र्डाकिन्स ने इसकी खोज की थी। गुुफा के एक हिस्से में रोमानो-ब्रिटिश कब्रिस्तान भी है। दर्शक-पर्यटक वूकी होल गुफाओं की जलधारा में तैराकी का लुफ्त उठा सकते हैं तो वहीं खुले सर्किट में एयर ड्राइविंग के भी मजे ले सकते हैं।

Thursday 14 September 2017

टियाटिहुआकन : पिरामिड श्रंखला का शहर

      'रहस्य एवं रोमांच" की देश-दुनिया में कहीं कोई कमी नहीं। 'रहस्य" की अनसुलझी गुत्थियां वैज्ञानिकों से लेकर आम आदमी तक को चिंतन-मनन-विमर्श को विवश कर देती हैं।

   मैक्सिको का 'टियाटिहुआकन" शहर सदियों बाद भी वैज्ञानिकों के लिए रहस्य बना हुआ है। 'टियाटिहुआकन" शहर पिरामिड श्रंखला का शहर है लेकिन यह खण्डहर शहर रहस्यों को छिपाये है। वैज्ञानिक सैकड़ों साल से रहस्य की गुत्थी सुलझाने की कोशिश में लगे हैं। फिलहाल तो मैक्सिको का 'टियाटिहुआकन" शहर रहस्य में उलझी एक विरासत से अधिक कुछ भी नहीं दिख रहा। वैज्ञानिकों की दृष्टि में पिरामिड़ों का यह एक खण्डहर शहर है।
     पिरामिड़ों के इस खण्डहर का वास्तविक नाम भले ही कुछ आैर हो लेकिन देश-दुनिया में इसे 'टियाटिहुआकन" की ख्याति हासिल है। विशेषज्ञों की मानें तो इस पिरामिड शहर की खोज एजटेक्स ने की थी। एजटेक्स ने ही इस स्थान को 'टियाटिहुआकन" संज्ञा दी थी। 'टियाटिहुआकन" का शाब्दिक अर्थ 'प्लेस आफ गॉड" होता है।
      विशेषज्ञों की मानें तो एजटेक्स की दृष्टि में मध्य युगीन यह शहर अचानक प्रकट हुआ था। इस शहर का निर्माण किसने किया आैर कब किया ? यह रहस्य अभी तक बना हुआ है। मैक्सिको सिटी के ठीक बाहरी इलाके में स्थित यह विस्मयकारी शहर करीब पांच सौ वर्ष पहले खण्डहर में तब्दील हो गया था। 'टियाटिहुआकन" का वास्तुशिल्प विलक्षण है।
      विशेषज्ञों की मानें तो इस विलक्षण शहर का निर्माण खास तौर से अर्बन ग्रिड सिस्टम से किया गया था। न्यूयार्क सिटी की बनावट भी इसी सिस्टम पर आधारित है। विशेषज्ञों का आंकलन है कि इस शहर की आबादी करीब पच्चीस हजार के आसपास रही होगी। पिरामिड से अभी भी मानव कंकाल अर्थात हड्डियों का ढ़ांचा मिलता रहता है। 
     इससे इतना तो अवश्य स्पष्ट होता है कि बड़ी तादाद में इंसानी बलिदान हुआ होगा। पिरामिड श्रंखला का यह शहर खण्डहर होने के बावजूद दर्शकों-पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहता है। देश-दुनिया के दर्शक-पर्यटक निरन्तर आते-जाते रहते हैं।

Wednesday 13 September 2017

जिराफ मनोर : जिराफ संग लंच

        कल्पना करें कि वन्य जीव के साथ-संग लंच या डिनर करना हो। सुबह जागने के बाद ताजगी महसूस करनी हो आैर कोई वन्य जीव 'गुड मार्निंग" करें तो मन-तन-मस्तिष्क एक 'रोमांच" से भर उठेगा। खास तौर से तब जब एहसास होगा कि वन्य जीव खतरनाक नहीं। 

     जी हां, जीवन में वन्य जीव का एहसास करना हो या वन्य जीव के आनन्द अनुभूति करनी हो तो केन्या बेहतरीन साबित होगा। खतरा नहीं पर एक सुखद एहसास। केन्या की राजधानी नैरोबी का खास होटल 'जिराफ मनोर" देश-दुनिया में खास ख्याति रखता है। नैरोबी का यह होटल जिराफ मनोर सफारी संग्रह का हिस्सा है। 
     नैरोबी के उपनगर लैंगटाटा में करीब एक सौ चालीस एकड़ में फैले इस विशेष होटल में रात गुजारना एक सुखद अनुभूति कराता है। जैसा कि नाम से एहसास होता है कि जिराफ जैसा कुछ अवश्य होगा लेकिन जिराफ जैसा नहीं वास्तविक अर्थात सच का जिराफ होटल के अन्दर-बाहर अपनी उपस्थिति का एहसास करायेगा। कभी डिनर की टेबल पर जिराफ मिलेगा तो कभी होटल के लॉन में साथ में वॉक करेगा। 
      गोगो फॉल्स रोड पर स्थित जिराफ मनोर में ऑलीशान कमरे हैं तो वहीं जिराफ खासियत हैं। करीब एक सौ चालीस एकड़ वन क्षेत्र के करीब बारह एकड़ में होटल का हिस्सा है। इसे एक विशेष बुटिक होटल के तौर पर माना जाता है। दुनिया के पर्यटक इसकी विशेषताओं से प्रभावित होकर आते हैं। इसमें सामान्यत: छह सुइट्स हैं। इनमें से एक सुइट लेखक करेन ब्लिक्सन के नाम पर है।
      यह सफारी सामान्यत: 1930 में अस्तित्व में आया। 'जिराफ मनोर" व परिसर में घूमना फिल्म में घूमने जैसा महसूस होता है। दिलचस्प यह कि राउण्डस्चिर जिराफ के झुण्ड 'जिराफ मनोर" परिसर एवं वन क्षेत्र में स्वच्छंद विचरण करते रहते हैं। इस क्षेत्र के जिराफ को पर्यटकों से खासा प्रेम-स्नेह है। जिराफ सुबह शाम कभी भी पर्यटकों के संग हो सकते हैं। 
        होटल में नाश्ता कर रहे हों, लंच-डिनर कर रहे हों आैर अचानक टेबल पर जिराफ की गर्दन दिख जाये तो चौंकना स्वाभाविक है लेकिन बिना हाथ से खिलाये जिराफ कुछ भी भोजन को स्पर्श नहीं करेगा। सूर्योदय एवं अस्त होता सूर्य होटल की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। देश-दुनिया के पर्यटक एक सुखद एहसास के लिए आते-जाते रहते हैं।

Tuesday 12 September 2017

किराडू : अनुपम स्थापत्य कला

     स्थापत्य कला का अनुपम स्थल राजस्थान का 'किराडू"। 'किराडू" को राजस्थान का खजुराहो भी कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। नख से सिख तक स्थापत्य कला का विलक्षण एवं अनुुपम सौन्दर्य। या यूं कहा जाये कि खण्डहर में सौन्दर्य-लालित्य एवं माधुर्य का संगमन।

      'किराडू" कभी राजस्थान का सौन्दर्य शहर था लेकिन अब तो सिर्फ स्थापत्य कलात्मकता को रेखांकित करने वाला खण्डहर रह गया। खण्डहर के इस स्थल में भी सौन्दर्य की लालिमा अभी भी आलोकित है। कण-कण एवं तृण-तृण में सौन्दर्य का अनुगूंथन दर्शकों को आकर्षित करता है। कारीगरों की कुशलता एवं वास्तुशिल्प सौन्दर्य को देख कर कलात्मकता से अभिभूत होना स्वाभाविक है। 
     विशेषज्ञों की मानें तो 'किराडू" सौन्दर्य से लबरेज तो है लेकिन अभिशप्त हो गया। 'किराडू" में सौन्दर्य शिल्प के साथ ही धार्मिकता का आवलम्बन है। सौन्दर्य शिल्प एवं धार्मिकता की अनुभूति एवं दृश्यावलोकन के लिए देश-दुनिया के पर्यटक दर्शक आते हैं। 'किराडू" देश-दुनिया में मंिदरों की शिल्पकला के लिए विख्यात है। इस मंदिर श्रंखला का निर्माण 11 वीं शताब्दी में किया गया था लेकिन करीब नौ सौ वर्ष से यह 'सौन्दर्य शिल्प स्थल" विरान पड़ा है।
       खास यह है कि सूर्योदय से लेकर सांझ तक कोई भी आ जा सकता है लेकिन सांझ के बाद 'किराडू" में रुकने का साहस कोई नहीं कर पाता। कारण स्थल का श्रापित होना है। विशेषज्ञों की मानें तो स्थल पर उपलब्ध शिलालेख दर्शाते हैं कि मंदिर श्रंखला का निर्माण परमार राजवंश के राजा दुलशालराज एवं उनके वंशजों ने कराया था। राजस्थान के इतिहासकारों की मानें तो 'किराडू" सुख सुविधाओं से सम्पन्न का सुन्दर शहर था1 व्यापार भी बेहतर था। 
        इस सुन्दर शहर को श्राप लगा जिसके बाद 'किराडू" विरान हो गया लेकिन 'स्थापत्यकला-शिल्पकला-सौन्दर्य" की ख्याति हो गयी। किवदंती है कि 'किराडू" में प्रवास करने वाला एक साधु अपने शिष्यों को 'किराडू" में छोड़ कर देशाटन पर निकल गये लेकिन जब लौट कर आये तो क्षोभ हुआ। शिष्य अचानक बीमार हो गये थे लेकिन एक कुम्हारिन को छोड़ कर किसी ने भी बीमार शिष्यों की देखभाल नहीं की। क्रोधित साधु ने श्राप दिया कि जिस स्थान पर दयाभाव नहीं, वहां मानवजाति को नहीं होना चाहिए। बस साधु के इस श्राप के बाद 'किराडूू" की आबादी पत्थर की हो गयी।
      कहावत है कि सूर्यास्त के बाद स्थल पर पत्थर बनने की आशंका से कोई नहीं रुकता। 'किराडू" में कभी पांच विशाल सौन्दर्ययुक्त मंदिरों की श्रंखला थी। सदियों से विरान होने के कारण काफी क्षति भी हुयी। अब विष्णु मंदिर एवं सोमेश्वर मंदिर ही सुरक्षित रह गये। सोमेश्वर मंदिर शीर्ष (सबसे बड़ा) मंदिर है। माना जाता है कि विष्णु मंदिर के निर्माण से ही स्थापत्यकला का प्रारम्भ हुआ। 
     सोमेश्वर मंदिर को इस कला के उत्कर्ष का अंत माना जाता है। ऐसी मान्यता है। 'किराडू" के मंदिरों का शिल्प न केवल विलक्षण है बल्कि अद्भूत है। शिल्प एवं सौन्दर्य देख कर दर्शकों को एहसास होता है कि जैसे अचरज लोक में पहंच गये हों। 'किराडू" की बेमिसाल कथायें-कहानियां अतीत की यशोगाथा को बयां करती हैं तो वहीं सौन्दर्य लुभाता है। पत्थरों में विद्यमान कला का सौन्दर्य स्वत: ही अचरज पैदा करता है। 
      सोमेश्वर मंदिर में भगवान शिव प्राण प्रतिष्ठित हैं। मंदिर की बनावट दर्शनीय है। खम्भ आधारित संरचना वाला यह मंदिर दक्षिण भारत के मीनाक्षी मंदिर का स्मरण कराता है। आवरण मध्य प्रदेश के खजुराहो को रेखांकित करता है। नीले एवं काले पत्थर श्रंखला से बने हाथी घोड़े एवं नक्कासी मंदिर के सौन्दर्य को चार चांद लगाती है। खण्डहर होने के बावजूद देश-दुनिया के दर्शक 'किराडू" का सौन्दर्य निहारने आते हैंं।

Monday 11 September 2017

हैमिल्टन पूल : अनुपम सौन्दर्य

         सौन्दर्य शास्त्र की अनुपम गाथा 'हैमिल्टन पूल"। जी हां, सामान्यत: विध्वंस-ध्वंस विनाश को रेखांकित करता है लेकिन 'हैमिल्टन पूल" का कण-तृण सौन्दर्य का बोध कराता है। ऑस्टिन टेक्सॉस में स्थित 'हैमिल्टन पूल" ध्वंस का कारक है। फिर भी सौन्दर्य की निराली छटा अवलोकित होती है।

    'हैमिल्टन पूल" स्वीमिंग के लिए बेहतरीन है तो वहीं सौन्दर्य का इन्द्रधनुषी रंग देख कर पर्यटक या सैलानी स्वत: सुध-बुध खो देता है। दुनिया के इस खूबसूरत 'हैमिल्टन पूल" का उद्भव गुफा की छत ध्वस्त या ढ़हने से हुआ था। प्राकृतिक सौन्दर्य का बोध कराने वाला 'हैमिल्टन पूल" एक शासकीय संरक्षित परिवेश है। 
  खास यह है कि पेडर्नलेस नदी इस इलाके में करीब तीन से चार मील शीर्ष पर प्रवाहित होती है। नदी का जल संगमन एक भव्य-दिव्य झरना के तौर पर तब्दील हो जाता है। सामान्यत: 'हैमिल्टन पूल" बालकोन्स केनोनलैण्डस का संरक्षित हिस्सा है लेकिन पर्यटकों की आवाजाही एवं सौन्दर्य की खूबियों के कारण सार्वजनिक स्थल के रुप में विख्यात है।
      'हैमिल्टन पूल" झरना क्षेत्र में रसायनिक पत्थर श्रंखला की बहुतायत है। कोना-कोना क्रीक चूना पत्थर की चमक से इन्द्रधनुषी रंग बिखेरता है। करीब पचास फुट ऊंचाई से प्रस्फुटित झरना की जल तरंगों से एक अद्भूत एवं मोहक सुगंध का एहसास दर्शक-पर्यटक को होता है। यह सुगंध दिल-ओ-दिमाग-मन-ओ-मस्तिष्क को तरोताजा कर देती है। 
     'हैमिल्टन पूल" पक्षियों की विविधिता के कोलाहल से अनुगूंजित होता रहता है तो वहीं विविध वनस्पतियां ताजगी का एहसास कराती हैं। देशी घास एवं जंगली फल-फूल मन मस्तिष्क को प्रसन्नता से भर देते हैं। यह क्षेत्र कोलोराड़ो नदी का निचला इलाका है। पक्षियों की कई लुप्त प्रजातियां भी यहां संरक्षित हैं। 
          यह संरक्षित इलाका लुप्तप्राय पक्षियों-प्रजातियों के लिए भी जाना जाता है। यह इलाका करीब तीस हजार चार सौ तीस एकड़ है। यह सुन्दर पूल ऑस्टिन के पश्चिम में करीब चालीस किलोमीटर दूरी पर है। खास यह है कि स्थानीय प्रशासन जल की गुणवत्ता का परीक्षण निरन्तर करता रहता है लेकिन कभी भी गुणवत्ता में गिरावट का अनुभव नहीं किया गया।

Sunday 10 September 2017

खाजू ब्रिज : नायाब अरेबियन शिल्पकला

      'सौन्दर्य शास्त्र" की इबारत भले ही कहीं न दिखे लेकिन सौन्दर्य बोध देश-दुनिया को अपने शिल्प से बरबस आकर्षित करता है। ईरान को भले तेल उद्योग-धंधे एवं रेगिस्तानी इलाके के तौर पर देश-दुनिया में देखा जाता हो लेकिन उसके शिल्प का अपना एक अलग मुकाम है। 

  'अरेबियन शिल्पकला" की अपनी विशिष्टताएं हैं। 'अरेबियन शिल्पकला" का सौन्दर्य खास ही नहीं आम अर्थात सार्वजनिक स्थलों पर भी दिखता है। रेगिस्तान में जहां एक ओर जल उपलब्धता का संकट खड़ा दिखता हो वहीं शिल्प सौन्दर्य विशिष्ट हो तो 'वाह वाह" लाजिमी हो जाता है।
   ईरान का इस्फान शहर विशिष्टताओं के साथ ही सौन्दर्य की गाथा भी संग रखता है। इस्फान का 'खाजू आर्च ब्रिज" अरेबियन शिल्पकला का अनुपम उत्कीर्ण शिल्प है। कोरइ नदी की कलकल बहती धारा के उपर शिल्प सौन्दर्य का निखार स्वत: आकर्षित करता है। निर्मल जलधारा के उपर झूलता ब्रिज (पुल) देश-दुनिया के लिए एक विशिष्ट आकर्षण है।
      खास यह है कि इस पुल की बनावट सामान्य पुलों जैसी नहीं है। सामान्यत: यह पुल शानदार महल अथवा बावड़ी जैसा दिखता है। सामान्यत: पर्यटक इस पुल से गुजरने के बजाय शिल्पकला का आनन्द एवं अनुभूति के लिए रुकते हैं। हालांकि यह पुल बहुत अधिक लम्बा नहीं है लेकिन पुल की ख्याति बहुत अधिक है। 'खाजू आर्च ब्रिज" वैसे तो 1650 ईसवी में बना था लेकिन देख कर ऐसा एहसास होता है कि जैसे इसका निर्माण अभी हाल के कुछ वर्षों पूर्व हुआ हो। 
    पुल 133 मीटर लम्बा है तो वहीं 23 मेहराब भी हैं। मेहराब का शिल्प देखते ही बनता है। बादशाह शाह अब्बास ने इस बेशकीमती एवं अति खूबसूरत पुल का निर्माण कराया था। इस ब्रिज के मध्य में दो विशाल कक्ष हैं। इन विशाल-दिव्य-भव्य कक्ष का उपयोग बादशाह शाह अब्बास व उनके वारिसान आरामगाह के तौर पर करते थे। हालांकि अब इन कक्ष को आम जनता को अवलोकनार्थ खोल दिया गया है। 
      ईरान का यह ब्रिज अरेबियन शिल्पकला का अनुपम एवं नायाब शिल्प है। विशेषज्ञों की मानें तो फारस के बादशाहों ने घोड़ों एवं बैलगाडि़यों को नदी पार कराने के लिए पुल की आवश्यकता महसूस हुयी थी। हालांकि अब पुल बाढ़ के संभावित खतरों को रोकने में कारगर दिखता है। पुल पर दो अष्टभुजाकार पैवेलियन बने हैं। पैवेलियन से पुल के सौन्दर्य को निहारा जा सकता है। खूबसूरती एवं सुकून यहां महसूस किया जा सकता है।

Friday 8 September 2017

माचू पिच्चू : सौन्दर्य का खजाना

    'सौन्दर्य शास्त्र" में 'प्राकृतिक सौन्दर्य" भी कमतर नहीं। जी हां, दुनिया के सात अजूबा-आश्चर्य में रहस्य-रोमांच है तो वहीं सौन्दर्य भी है।

      दक्षिण अमेरिका के देश पेरु का 'माचू पिच्चू" रहस्य के साथ सौन्दर्य को भी रेखांकित करता है। हालात यह हैं कि पेरु का 'माचू पिच्चू" सांस्कृतिक स्थल के साथ साथ महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल भी है। कोलम्बस पूूर्व युग के इंका सभ्यता का यह ऐतिहासिक स्थल दक्षिण अमेरिका के खास स्थलों में गिना जाता है। 
       इसे 'इंकाओं का खोया शहर" भी कहा जाता है तो 'लॉस्ट सिटी ऑफ इन्का" का खिताब भी हासिल है। समुद्र तल से करीब 2430 मीटर शिखर पर स्थित इस पुरातन स्थल को दुनिया के 'सात आश्चर्य" में स्थान मिला है। इंकाओं की पुरातन शैली में बना 'माचू पिच्चू" उरुबाम्बा नदी के शीर्ष-शिखर पर स्थित एक पर्वत श्रंखला पर विद्यमान है। कुज्जों से करीब 80 किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित 'माचू पिच्चू" इंका साम्राज्य का अंतिम अवशेष माना जाता है। 
      'माचू पिच्चू" के निर्माण में खास तौर से पॉलिश्ड पत्थर श्रंखला का उपयोग किया गया है। इन पॉलिश्ड पत्थर श्रंखला की चमक विशेष है। विश्व की इस धरोहर की खोज का श्रेय अमेरिकी इतिहासकार हीरम बिंघम को है। इतिहासकार ने 'माचू पिच्चू" की खोज वर्ष 1911 में की थी। हालांकि अब यह स्थान दुनिया का विशेष महत्वपूर्ण एवं आकर्षक पर्यटन स्थल बन चुका है। पेरू शासन ने 1981 में 'माचू पिच्चू" को ऐतिहासिक देवालय घोषित कर दिया था।
    इसके बाद 1983 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल का दर्जा देकर गौरव बढ़ाया। विशेषज्ञों की मानें तो स्पेनियों ने इंकाओं पर विजय हासिल करने के बाद भी 'माचू पिच्चू" को नहीं लूटा। विजय हासिल करने बाद 'माचू पिच्चू" को न लूटा जाना भी रहस्य बना है क्योंकि वैभव व सम्पदाओं का खजाना होने बाद भी इसे यूं ही छोड़ दिया गया। 'माचू पिच्चू" का प्राथमिक भवन इंतीहुआताना एवं तीन खिड़कियों वाला कक्ष प्रमुख है। 'इंतीहुआताना" को 'सूर्य मंदिर" भी कहा जाता है।
      करीब सवा तीन सौ वर्ग किलोमीटर दायरे में फैले इस हिस्टोरिकल सेंचुरी (ऐतिहासिक अभ्यारण) में बेशकीमती खजाना भी मिला था। विशेषज्ञों की मानें तो 'माचू पिच्चू" को हथियाने व लूटने के लिए शासकों के बीच चुनौतियां रहीं। इतिहासकारों की मानें तो इतिहासकार बिंघम शायद पहला बाहरी इंसान था जिसकी दृष्टि इसकी बेशकीमती विलक्षणता पर पड़ी।
    'माचू पिच्चू" में सर्वाधिक चर्चित स्थान 'इंका ट्रेल ट्रैक" भी है। यह ट्रैक 4215 मीटर की ऊंचाई तक ले जाता है। इस ट्रैक पर प्राचीनकाल इंका के तराशे पत्थर भी मिलते हैं। वर्ष में एक बार ट्रैक पर रेस भी होती है। यह रेस 26 मील के मैराथन की तरह होती है। इस रेस को जीतने का अब तक का सबसे कम समय 26 मिनट का रहा। इस ट्रैक का सबसे खूबसूरत नजारा सूर्य उद्गम होता है। 
       सूर्य का उद्गम पर्वत की चोटियों से होकर होता है। जिससे पर्वत के सौन्दर्य को चार चांद लग जाते हैं। राजसी शासन की अवधि में इस क्षेत्र में प्रवेश के नियम एवं व्यवस्थायें थीं। खास यह था कि किसी भी देश के अपने पारम्परिक परिधान में प्रवेश नहीं मिलता था। यूं कहा जाये कि 'माचू पिच्चूू" में प्रवेश के लिए सदियों पूर्व ड्रेस कोड लागू था तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी।

Tuesday 5 September 2017

नायाब : 'चम्बल का संसद" इंकतेश्वर महादेव मंदिर

          ऐसा नहीं कि शिल्प केवल बुलंद इमारतों एवं अट्टालिकाओं में ही दिखे। चम्बल को भले ही बीहड़ों की भयावहता एवं दुर्यान्त डकैतों की आश्रय स्थली के तौर पर देखा जाता हो लेकिन कलाशिल्प-वास्तुशिल्प में भी पीछे नहीं। 

    मध्यकालीन शिल्पियों एवं वास्तुविद-वास्तु शिल्पकारों ने 'अंदाज-ए-बयां" कुछ ऐसा अंजाम दिया, जो देश-दुनिया का एक नायाब तोहफा बन गया। मध्यकालीन शिल्पकारों ने चम्बल की एक विशाल चट्टान को इच्छाशक्ति से विशिष्ट बना दिया। ब्रिाटिश आर्कीटेक्ट सर हरबर्ट बेकर भी स्थापत्य कला एवं संरचना को देख अभिभूत हो गए थे। 
       जी हां, इस स्थान को खास तौर से 'चम्बल का संसद" की संज्ञा दी गयी है। 'चम्बल का संसद" कहा भी क्यूं न जाए ? क्योंकि भारतीय संसद का आकार-प्रकार-ढ़ांचा सभी कुछ इस भव्य-दिव्य देवालय पर आधारित है। मध्य प्रदेश के चम्बल मुरैना में मितावली पर स्थित है। इकोत्तरसो या इंकतेश्वर महादेव के नाम से ख्याति प्राप्त यह 'देवालय" भूमि तल से करीब तीन सौ फीट ऊंचाई पर स्थित है। 
       विशेषज्ञों की मानें तो 'भारतीय संसद" ब्रिाटिश वास्तुविद सर एडविन ल्युटेन की मौलिक संरचना माना जाता है लेकिन यह भी कटु सत्य है कि इस देवालय की संरचना भी भारतीय संसद जैसी है। धार्मिक क्षेत्र में इस देवालय को चौसठ योगिनी शिव मंदिर की मान्यता है। ग्रेनाइट स्टोन (पत्थर) से बना यह देवालय लालित्य-सौन्दर्य एवं माधुर्य की विलक्षण संरचना है।
     भारतीय पुरातत्व विभाग की मानें तो इस देवालय का निर्माण 9 वीं शताब्दी में हुआ। गोलाकार संरचित इस देवालय के मध्य में मुख्य गर्भगृह स्थापित है। मुख्य शिवलिंग इसी गर्भगृह में स्थापित है। विशेषज्ञों की मानें तो सन् 1323 में महाराजा देवपाल ने शिवलिंग स्थापित कराया था। चौसठ योगिनी का यह भव्य-दिव्य देवालय वास्तुकला एवं एवं गौरवशाली परम्परा के लिए ख्याति रखता है। 
       अफसोस, ख्याति होने के बावजूद मध्य प्रदेश या देश के पर्यटन क्षेत्र में यह स्थान कोई खास ख्याति नहीं बना सका। विशेषज्ञों की मानें तो तत्कालीन क्षत्रिय महाराजाओं ने इसका निर्माण कराया था। इस भव्य-दिव्य देवालय में गोलाकार चौसठ कक्ष संरचित हैं। प्रत्येक कक्ष में एक एक शिवलिंग प्राण प्रतिष्ठित है। इसके मुख्य परिसर में भव्य-दिव्य शिवमंदिर है। 
      शिव के साथ ही देवी योगिनियां भी प्राण प्रतिष्ठित हैं। खास बात यह है कि योगिनियों सहित शिव के इस मंदिर में केवल हिन्दू धर्मावलम्बी ही पूजन-अर्चन नहीं करते बल्कि अंग्रेज-विदेशी नागरिक भी श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो देश में चार चौसठ योगिनियों के मंदिर हैं। इनमें दो ओडिशा में आैर दो मध्य प्रदेश में हैं। यहां सनातन धर्म एवं तांत्रिक क्रियाओं का पूर्ण विश्वास है। 
       खास यह है कि इस भव्य-दिव्य देवालय में एक सौ एक खम्भों की आकर्षक श्रखला विद्यमान है। प्राचीनकाल में तांत्रिक अनुष्ठान का यह अत्यंत विशाल एवं बड़ा केन्द्र था। इस भव्य-दिव्य देवालय तक पहंचने के लिए करीब दो सौ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं।

Monday 4 September 2017

हाइपेरियन : दुनिया का सबसे ऊंचा पेड़

      दुनिया-धरती में 'अजूबा" की कहीं कोई कमी नहीं। 'सौन्दर्य-लालित्य एवं माधुर्य" से लबरेज 'अजूबा" धरती में कहां नहीं ? वन एवं पर्यावरण श्रंखला में भी 'सौन्दर्य-लालित्य एवं माधुर्य" कम नहीं।

   इस प्राकृतिक सम्पदा को सुरक्षित-संरक्षित रखना भौतिकतावादी युग में भले ही कुछ मुश्किल भले ही हो गया हो लेकिन प्राकृतिक सम्पदा श्रंखला का दुनिया धरती में अपार भण्डार है। इन प्राकृतिक सम्पदाओं में विलक्षणता भी विद्यमान है। विशेषज्ञों की मानें तो न्यूयार्क का 'स्टैच्यू आफ लिबर्टी" अपनी शीर्षता के लिए दुनिया में ख्याति रखता है लेकिन दुनिया की वन एवं पर्यावरण सम्पदा श्रंखला 'स्टैच्यू आफ लिबर्टी" को चुनौती देती है।
       कैलिफोर्निया का 'हाइपेरियन" वृक्ष-पेड़ अपनी ऊंचाई के लिए ख्याति रखता है। विशेषज्ञों की मानें तो 'हाइपेरियन" वृक्ष धरती का सबसे अधिक ऊंचाई वाला पेड है। इसे कैलिफोनिया में रेडवुड अर्थात लाल लकड़ी की संज्ञा से नवाजा गया है। इन विलक्षण पेड़ों की आैसत आयु भी आश्चर्यचकित करने वाली है। यह विलक्षण पेड़ 1200 वर्ष से लेकर 1800 वर्ष तक आयु को आसानी से पूर्ण करते हैं।
      'हाइपेरियन" वृक्ष की लम्बाई सामान्यत: एक सौ पन्द्रह मीटर से लेकर एक सौ बीस मीटर तक होती है। व्यास भी कम नहीं होता। 'हाइपेरियन" का व्यास भी नौ से दस मीटर तक होता है। 'हाइपेरियन" पर्यावरण का अति दुलर्भ प्रजाति के वृक्ष श्रंखला में माना जाता है। विशेषज्ञों की मानें तो हाइपेरियन की खोज करीब एक दशक पहले 25 अगस्त 2006 को पर्यावरणविद एवं प्रकृतिवादी क्रिस अटकिंस एवं माइकल टेलर ने संयुक्त तौर से की थी। 
     हालांकि इस विलक्षण वृक्ष की उपलब्धता 1978 में विशेषज्ञों की नजर में आयी थी लेकिन कहीं अधिक महत्व नहीं मिला। सामान्यत: इस लकड़ी का उपयोग परिवेश की सजावट में किया जाता था। करीब सात सौ वर्ष पुराने पेड़ में 18000 से 20000 घनफुट लकड़ी होने का आंकलन रहता है। उत्तरी कैलिफोर्निया में एक तट को सेक्वाइया सेम्परवान्र्स के नाम से जाना जाता है।
     इस क्षेत्र में हाइपेरियन की वृक्ष श्रंखला पायी गयी। पर्यटक हाइपेरियन की विलक्षणता को देखने आते हैं। कई बार तो पर्यटक पेड़ पर चढ़ने से भी नहीं चूकते। कैलिफोर्निया व आसपास के इलाकों में उपलब्ध इस वृक्ष श्रंखला के अधिसंख्य वृक्ष काटे जा चुके हैं। 
   विशेषज्ञों की मानें तो 95 प्रतिशत से अधिक वृक्ष कट जाने से यह प्रजाति विलुप्त पर्यावरण श्रंखला में शामिल हो गयी। विशेषज्ञों की मानें तो दुनिया के शीर्ष वृक्ष श्रंखला में हाइपेरियन शीर्ष पर है। हाइपेरियन वृक्ष की लकड़ी सुन्दर, चमकदार, लाल रंग की होती है। 
    आशियाना को सौन्दर्य शास्त्र के अनुरुप गढ़ना हो तो हाइपेरियन लकड़ी को श्रेष्ठ एवं उत्तम माना जाता है। लिहाजा हाइपेरियन वृक्ष श्रंखला के सामने अस्तित्व संकट  खड़ा हो गया। हालांकि कैलिफोर्निया सहित देश-दुनिया के कई इलाकों में हाइपेरियन के वृक्ष पाये जाते हैं। खास तौर से मुख्य मार्गो एवं हाईवे पर यह वृक्ष श्रंखला शोभायमान होती है।
     इन वृक्षों के आसपास अन्य वृक्षों की तुलना में शीतलता भी कहीं अधिक पायी जाती है। व्यास अधिक होने व ऊंचाई भी अपेक्षाकृत अधिक होने पर वन क्षेत्र अर्थात जंगलों में कई बार आश्रय स्थल के तौर पर भी हाइपेरियन उपयोग होते हैं।       

Sunday 3 September 2017

कंबोडिया का टा प्रोहोम : नैराश्य में सौन्दर्य

     'नैराश्य में सौन्दर्य" जी हां, सामान्यत: खण्डर नैराश्य का प्रतीक होते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं कि खण्डर में सौन्दर्य न दिखे। बस सलीके से सजाने-संवारने की आवश्यकता होगी।

     कंबोडिया का 'राजा विहार" मंदिर अपने शिल्प एवं वैशिष्ट्य के कारण विश्व विख्यात हो रहा। हालांकि 'राजा विहार" मंदिर खण्डर की भांति विद्यमान है लेकिन खण्डहर का सौन्दर्य भी दर्शकों-श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों को आकर्षित करता है। कंबोडिया के इस विलक्षण मंदिर को 'टा प्रोहोम" के नाम से देश-दुनिया में खास तौर से जाना-पहचाना जाता है। कंबोडिया में 'टा प्रोहोम" का आशय 'पूर्वज ब्राह्मा" होता है।
      कंबोडिया के सिम रीप प्रांत के अंगकोर में स्थित है। खण्डहर में सामान्यत: नैराश्य प्रतीत होता है लेकिन 'टा प्रोहोम" में ऐसा नहीं है क्योंकि यहां 'नैराश्य में सौन्दर्य एवं लालित्य" का बोध होता है। कंबोडिया का यह मंदिर 12 वीं एवं 13 वीं शताब्दी के मध्य बना। कंबोडिया की बैन शैली पर आधारित यह विलक्षण मंदिर देश-दुनिया में खास ख्याति रखता है। इसे 'राजविहार" भी कहा जाता है।
       विशेषज्ञों की मानें तो कभी मंदिर क्षेत्र शहर का हिस्सा हुआ करता था लेकिन अब वन क्षेत्र का विशिष्ट स्थान है। अब तो मंदिर का कोना-कोना जगंल परिवेश से आबद्ध दिखता है। इस भव्य-दिव्य मंदिर का निर्माण खमेर राजा जय वरामन ने कराया था। अंगकोर के इस विश्व प्रसिद्ध मंदिर को यूनेस्को ने 1992 में विश्व धरोहर में शामिल किया था। 
       भारत एवं कंबोडिया के पर्यटन समझौता के तहत इस मंदिर के सौन्दर्य निखार एवं संरक्षण में भारतीय विशेषज्ञों की भी विशेष भूमिका रहती है। इस मंदिर में मुख्यत: बौद्ध दर्शन होते हैं। बौद्ध अनुयायियों के बीच इसकी मान्यता बौद्ध मठ के तौर पर भी है। इस मंदिर की दिव्यता एवं भव्यता का सहज अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहां 12500 से अधिक श्रद्धालुओं-दर्शकों एवं पर्यटकों के लिए अपेक्षित एवं पर्याप्त स्थान है। 
     विशेषज्ञों की मानें या किवदंती मानें तो इस भव्य-दिव्य मंदिर के निर्माण में आत्माओं का भी सहयोग रहा। आसपास के गांव व अन्य करीब आठ लाख से अधिक आत्माओं का सेवाओं एवं आपूर्ति में सहयोग माना जाता है। मंदिर के लिए श्रम के साथ ही सोना, मोती, रेशम व धन की उपलब्धता भी सुनिश्चित करायी गयी थी। मंदिर में उपग्रह का अंकन है। 
    खास तौर से बौद्ध धर्म को रेखांकित किया गया लेकिन राजा की मां, राजा के गुरु, जय मंगलला, बोधिसत्व, लोकेश्वर की करुणा आदि दृश्यांकित है। विशेषज्ञों की मानें तो 15 वीं शताब्दी में खमेर साम्राज्य के पतन के बाद 'टा प्रोहोम" मंदिर को छोड़ दिया गया। सदियों उपेक्षित रहने से मंदिर खण्डर में तब्दील हो गया। अन्तोगत्वा, 21 शताब्दी में अंगकोर के मंदिरों को सुरक्षित-संरक्षित एवं पुर्नस्थापना के सार्थक प्रयास शुरु हुये। 
    'टा प्रोहोम" को सौन्दर्य प्रदान करने की इच्छाशक्ति इकोले फ्रांसीज डी एक्सट्रैम ओरियेंट में दिखी। शनै-शनै यह विलक्षण मंदिर उपेक्षा से उबरने लगा। उपेक्षा की अवधि में मंदिर का बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो चुका था। विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 2013 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने मंदिर का गौरव व स्वरूप वापस लाने की कोशिशें प्रारम्भ कीं।
        विशेषज्ञ अन्तोगत्वा, मंदिर के अधिसंख्य हिस्सों को वास्तविक दशा-दिशा में लाने में कामयाब रहे। पर्यटकों की सहूलियतों को ध्यान में रखते हुये लकड़ी के रास्ते, प्लेटफार्म व घुडसवारी के लिए रेलिंग आदि का निर्माण कराया गया। मंदिर का क्षेत्रफल करीब साढ़े छह लाख वर्गफुट से अधिक है। यहां एक सुन्दर अभ्यारण भी है। इसे विश्व के शीर्ष बौद्ध स्थलों में से एक माना जाता है।

Friday 1 September 2017

कापूचिन कैटाकोम्ब : आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, विलक्षण शव संग्रहालय

      'आश्चर्यजनक किन्तु सत्य" जी हां, कब्रिास्तान तो देखे सुने जाते हैं लेकिन शव संग्रहालय बहुत कम ही सुना जाना गया। इटली में दुनिया का सबसे अजूबा संग्रहालय है। 

   हालांकि संग्रहालय संवेदनशील एवं कमजोर ह्मदय वाले व्यक्तियों को अवलोकन की इजाजत नहीं देता। इस आश्चर्यजनक संग्रहालय को देश-दुनिया में 'कापूचिन कैटाकोम्ब" के नाम से जाना-पहचाना जाता है। इसे अनोखा कब्रिास्तान कहा जाये या शव संग्रहालय की संज्ञा दी जाये। 
     विशेषज्ञों की मानें तो सदियों पुराने इस शव संग्रहालय में करीब दस हजार शव संग्रहित हैं। यह एक ऐसा शव संग्रहालय है, जहां शव को ममी बना कर सुरक्षित रखा गया है। इटली के शहर सिसली में स्थित इस शव संग्रहालय को देखने देश दुनिया के असंख्य पर्यटक आते हैं। 'कापूचिन कैटाकोम्ब" शायद दुनिया को विलक्षण एवं अनोखा शव संग्रहालय है। 'कैटाकोम्ब" का शाब्दिक अर्थ अण्डर ग्राउण्ड कब्रिस्तान होता है। 
     विशेषज्ञ बताते हैं कि प्राचीन रोम में इस तरह के कब्रिस्तान बहुतायत में पाये जाते थे। लेकिन 'कापूचिन कैटाकोम्ब" काफी हद तक 'कैटाकोम्ब" से अलग है। यहां शव को दफनाने के स्थान पर ममी की भांति सजा-संवार कर सुरक्षित रखा जाता है। यह कब्रिस्तान एक संग्रहालय की भांति है। 'कापूचिन कैटाकोम्ब" में शव को रखने के लिए अलग-अलग सेक्शन अर्थात वर्ग बने हुये हैं। मसलन पुरुष वर्ग, महिला वर्ग, बाल वर्ग, कुंवारी कन्याओं का वर्ग, संत-महात्माओं का वर्ग, शिक्षक वर्ग, चिकित्सक वर्ग एवं सैनिक-रक्षा विशेषज्ञ वर्ग आदि-इत्यादि हैं। 
        विशेषज्ञों की मानें तो इस शव संग्रहालय में प्रथम ममी वर्ष 1599 में बनायी गयी थी। यह शव ब्रादर सिल्वेस्ट्रो का था। हालांकि वर्ष 1880 में इस कब्रिास्तान को अधिकृत तौर पर बंद कर दिया गया था। बताते हैं कि बंद होने के बायजूद अक्सर शव को लेकर लोग आते थे। अन्तोगत्वा, एक बार फिर संग्रहालय की हलचल होने लगी। वर्ष 1920 में एक बच्ची का शव आया। इसे ममी बना कर संरक्षित कर लिया गया। बच्ची के इस शव अर्थात ममी को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे बच्ची सो रही हो। गहरी निद्रा में हो। यह बच्ची रोसलिया लबाडरे थी।
       इस ममी को संग्रहालय में 'स्लीपिंग ब्यूटी" नाम दिया गया। यह रहस्य अभी भी कायम है कि बच्ची के शव को ममी बनाने में आखिर कौन सा रसायन उपयोग में लाया गया क्योंकि बच्ची की ममी अभी भी वैसी ही है। विशेषज्ञों की मानें तो 'कापूचिन कैटाकोम्ब" की स्थापना केवल कैथालिक संत-महात्माओं के शव संरक्षित-सुरक्षित रखने के लिए किया गया था लेकिन धीरे-धीरे इस संग्रहालय में शव को ममी के तौर पर रखा जाना सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सामाजिक रुतबा माना जाने लगा। 
      इस संग्रहालय में मृतक के परिजनों से बकायदा शुल्क वसूला जाता है। जिससे संग्रहालय के रखरखाव का खर्च चले। यदि किसी ममी का शुल्क आना बंद हो जाता है तो उस ममी को संग्रहालय से हटा दिया जाता है। 'कापूचिन कैटाकोम्ब" देश-दुनिया के पर्यटकों के लिए हमेशा खुला रहता है। हालात यह हैं कि यह शव संग्रहालय इटली का विशेष आकर्षण बन चुका है। 
      यह शव संग्रहालय अंदर से जितना डरावना लगता है, उतना ही अधिक आकर्षण भी है। हालांकि संग्रहालय तक पहंुचना का रास्ता संकरी गलियों से हो कर गुजरता है। फिर भी शव संग्रहालय में ममियों को देखने बड़ी संख्या में देश विदेश के पर्यटक पहुंचते हैं।

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